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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवधमानचरिते [२.११२अथैवात्र पुरे रम्ये स्थूणागारसमाह्वये । भारद्वाजद्विजोऽग्यासीत्पुष्पदन्ता च वल्लभा ॥११२॥ तयोः स कल्पतरच्युत्वा पुष्पमित्राह्वयोऽभवत् । तनूजो दुर्मतोत्पन्नकुशास्त्राभ्यासतत्परः ॥११३॥ पुनर्मिथ्याधपाकेन मिथ्यामतविमोहितः । स्वीकृत्य प्राक्तनं वेषं प्रकृत्यादिप्ररूपितान् ॥११॥ पञ्चविंशतिदुस्तत्वान् दुधियामभिमानयन् । बद्धवा मन्दकषायेण देवायुः सोऽभवद व्यसुः॥११५|| तेन सौधर्मकल्पेऽभूदेकसागरजीवितः । स देवः स्वतपोयोग्यसुखलक्ष्म्याटिमण्डितः ॥११६॥ अथेह मारते क्षेत्रे श्वेतिकाख्ये पुरे शुभे । ब्राह्मणोऽस्त्यग्मिभूत्याख्यो ब्राह्मणी (तस्य) गौतमी ॥१७॥ स्वर्गाच्च्युत्वा तयोरासीत्सोऽमरः कर्मपाकतः । पुत्रोऽग्निसहनामा निजैकान्तमतशास्त्रवित् ॥११॥ पुनः प्राकर्मणा भूत्वा परिव्राजकदीक्षितः । कालं स पूर्ववन्नीत्वा स्वायुषोऽन्ते मृति व्यगात् ।। ११९॥ तदज्ञानतपक्लेशाद् बभूवासौ सुरो दिवि । सनत्कुमारसंज्ञे सप्ताब्यायुष्कः सुखान्वितः ॥२०॥ अथास्मिन् मारते रम्ये मन्दिराख्येपुरे वरे । विप्रो गौतमनामास्य कौशिकी ब्राह्मणी प्रिया ।।१२१॥ तयोर्देवो दिवश्च्युत्वा सोऽग्निमित्राभिधोऽजनि । तनूद्भवो महामिथ्यादृष्टिदुःश्रुतिपारगः ।।१२२॥ पुनः पूर्वभवाभ्यासाचीत्वा दीक्षां पुरातनीम् । विधाय वपुषः क्लेशं मृतः स स्वायुषः क्षये ॥२३॥ तेनाज्ञतपसा जज्ञे कल्पे माहेन्द्रसंज्ञके । गीर्वाणः स्वतपोजातायुःश्रीदेव्यादिमण्डितः ॥१२॥ अथेह प्राक्तने रम्ये पुरे मन्दिरनामके । सालंकायनविप्रोऽस्ति मन्दिरा तस्य वल्लभा ॥१२५|| तयोद्धिजचरो देवश्च्युत्वा माहेन्द्रतः स तुक् । मारद्वाजाह्नयो जातः कुशास्त्राभ्यासतत्परः ।।१२६॥ इसके पश्चात् इसी भारतवर्षके स्थूणागार नामके रमणीक नगर में एक भारद्वाज नामका द्विज रहता था। उसकी पुष्पदन्ता नामकी स्त्री थी॥११२|| स्वर्गसे चयकर वह देव उन दोनोंके पुष्पमित्र नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। वह कुमतसे उत्पन्न कुशास्त्रोंके अभ्यासमें तत्पर रहता था ॥११३॥ मिथ्यात्व कर्मके विपाकसे वह पुनः मिथ्यामतसे विमोहित होकर और उसी पुराने परिव्राजक वेषको स्वीकार करके प्रकृति आदि पूर्व प्ररूपित पचीस कुतत्त्वोंको कुबुद्धिजनोंके लिए स्वीकार कराता हुआ मन्द कषायके योगसे देवायुको बाँधकर मरा और सौधर्म कल्पमें एक सागरोपमकी आयुका धारक एवं अपने तपके योग्य सुख और लक्ष्मी आदिसे मण्डित देव उत्पन्न हुआ ॥११४-११६।। अनन्तर इसी भारत क्षेत्रमें श्वेतिका नामके उत्तम नगरमें अग्निभूति नामका ब्राह्मण रहता था। उसकी ब्राह्मणीका नाम गौतमी था ॥११७॥ स्वर्गसे चयकर वह देव उन दोनोंके अग्निसह नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। वह पूर्वकृत मिथ्यात्व कर्मके उदयसे अपने ही पूर्व प्रचारित एकान्त मतके शास्त्रोंका ज्ञाता हुआ और पुनः पुरातन कर्मसे परिव्राजक दीक्षासे दीक्षित होकर और पूर्व के समान ही काल बिताकर और अपनी आयुके अन्तमें मरकर उस अज्ञान तपःक्लेशके प्रभावसे सनत्कुमार नामके स्वर्गमें सात सागरोपम आयुका धारक सुखसम्पन्न देव हुआ ॥११८-१२०॥ तत्पश्चात् इसी भारतवर्षमें रमणीक मन्दिर नामके उत्तम पुरमें गौतम नामका एक विप्र रहता था। उसकी कौशिकी नामकी ब्राह्मणी प्रिया थी ॥१२१॥ उन दोनोंके स्वर्गसे च्युत होकर वह देव अग्निमित्र नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। वह महा मिथ्यादृष्टि और कुशास्त्रोंका पारगामी था। वह पुनः पूर्व भवके अभ्यासस पूर्व भववाली परिव्राजक दीक्षाको लेकर और शारीरिक क्लेशों को सहनकर अपनी आयुके क्षय होनेपर मरा और उस अज्ञान तपसे माहेन्द्र नामके स्वर्गमें अपने तपके अनुसार आयु, लक्ष्मी और देवी आदिसे मण्डित देव उत्पन्न हुआ ॥१२२-१२४॥ तदनन्तर इसी भारतवर्षके उसी पुरातन मन्दिर नामके रमणीक नगरमें सालंकायन नामका एक ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्रीका नाम मन्दिरा था। उन दोनोंके वह देव माहेन्द्र For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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