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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २.१११] द्वितीयोऽधिकारः यथैष तीर्थनाथोऽत्रात्मना संगादिवर्जनात् । त्रिजगज नसंक्षोभकारि सामर्थ्यमाप्तवान् ।।९८॥ मदुपज्ञं तथा लोके व्यवस्थाप्य मतान्तरम् । तन्निमित्तोरुसामर्थ्याजगत्त्रयगुरोरहम् ।।९९॥ प्रतीक्षा प्राप्त मिच्छामि तन्मेऽवश्यं भविष्यति । इति मानोदयादुष्टो न व्यरंसीत्स्वदुर्मतात् ॥१०॥ त्रिदण्डसंयुतं वेषं तमेवादाय पापधीः । कायक्लेशपरो मूर्खः कमण्डलुकराङ्कितः ।।१०१।। प्रातः शीतजलस्नानाकन्दमूलादिमक्षणात् । बाह्योपधिपरित्यागात् कुर्वन् विख्यातिमात्मनः ॥१०२॥ कपिलादिस्वशिष्याणां स्वकल्पितमतान्तरम् । इन्द्रजालनिमं निन्यं यथार्थ प्रतिपादयन् ।।१०३।। मुदा भ्रान्त्वा चिरं भूमौ मिध्यामार्गाग्रणीः खलः । कालेन मरणं प्राप तनूजो भरतेशिनः ॥१०॥ अज्ञानतपसाथासौ ब्रह्मकल्पेऽमरोऽजनि । दशसागरजीवी स्वयोग्यसंपत्सुखान्वितः ।।१०५॥ अहो ईदृक् तपःकर्तायं यद्याप सुरालयम् । अतो ये सुतपः कुर्युस्तेषां किं कथ्यते फलम् ॥१०६॥ अथेह भारते पुयाँ साकेतायां द्विजो वसेत् । कपिलाख्यः प्रिया तस्य कालीनाम्ना बभूव हि ॥१०७॥ तयोः स निर्जरः स्वर्गादेत्याभूजटिलाभिधः । सुतो दुर्मतसंलोनो वेदस्मृत्यादिशास्त्रवित् ॥१०॥ पूर्वसंस्कारयोगेन परिव्राजक एव सः। भूत्वा मूढजनैर्वन्धः स्वकुमार्ग प्रकाशयन् ॥१०९॥ पूर्ववत्सुचिरं लोके मृत्वा स्वस्यायुषः क्षये । तत्कष्टादमरो जज्ञे कल्पे सौधर्मनामनि ॥१०॥ द्विसागरोपमायुष्कः स्वल्पर्धिसुखसंयुतः । अहो न निःफलं जातु कुधियां कुतपो भुवि ॥१११॥ उपदेश सुन करके भी संसारके कारणभत अपने खोटे मतको नहीं छोडा ॥९७। प्रत्यत मनमें सोचने लगा कि जैसे इन पूज्य तीर्थनाथ ऋषभदेवने परिग्रहादिको त्यागनेसे तीन जगत्के जीवोंको क्षोभित करनेवाली सामर्थ्य प्राप्त की है, उसी प्रकार मैं भी अपने द्वारा प्ररूपित इस अन्य मतको लोकमें व्यवस्थित करके उसके निमित्तसे महान् सामर्थ्यवाला होकर त्रिजगत्का गुरु हो सकता हूँ। मैं उस अवसरको पानेके लिए प्रतीक्षा करता हूँ। वह सामर्थ्य मुझे अवश्य प्राप्त होगी। इस प्रकारके मानकषायके उदयसे वह दुष्ट अपने खोटे मतसे विरक्त नहीं हुआ ॥९८-१००॥ वह पापबुद्धि मूर्ख उसी तीन दण्डयुक्त वेषको धारण कर और हाथमें कमण्डलु लेकर कायक्लेश सहने में तत्पर रहने लगा ॥१०१॥ वह प्रातःकाल शीतल जलसं स्नान करके कन्दमूलादि फलोंको खा करके और बाहरी परिग्रहके त्यागसे अपनी प्रख्याति करने लगा, तथा कपिल आदि अपने शिष्योंको इन्द्रजालके समान अपने कल्पित निन्द्य मतान्तरको यथार्थ प्रतिपादन करता हुआ मिथ्या मार्गके प्रवर्तनका अग्रणी बनकर चिरकाल तक भारतभूमिमें परिभ्रमण करता रहा । अन्तमें भरतेशका वह पुत्र मरीचि यथाकाल मरणको प्राप्त होकर अज्ञान तपके प्रभावसे ब्रह्मकल्पमें दश सागरोपमकी आयुका धारक और अपने पुण्यके योग्य सुख-सम्पत्तिसे युक्त देव हुआ॥१०२-१०५।। अहो, इस प्रकारके कुतपको करनेवाला व्यक्ति यदि स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ, तो जो लोग सुतपको करेंगे, उनके तपका क्या फल कहा जाये ? अर्थात् वे तो और भी अधिक उत्तम फलको प्राप्त करेंगे ॥१०६।। अथानन्तर इस भारतवर्षमें साकेतापुरीके भीतर कपिल नामका एक ब्राह्मण रहता था। उसकी काली नामकी स्त्री थी ॥१०७॥ उन दोनोंके वह देव स्वर्गसे चयकर जटिल नामका पुत्र हुआ। वह कुमतमें संलीन रहता था और वेद, स्मृति आदि शास्त्रोंका विद्वान् था।। ।१०८।। पूर्व संस्कारके योगसे वह पुनः परिव्राजक होकर कुमागेका प्रकाशन करता हुआ मूढजनोंसे वन्दनीय हुआ ॥१०९॥ पूर्वभवके समान इस भवमें भी वह चिरकाल तक अपने मतका प्रचार करता और उसे पालन करता हुआ आयुके क्षय हो जानेपर मरकर उस अज्ञान तपके कष्ट-सहनके प्रभावसे पुनः सौधर्म नामक कल्पमें देव उत्पन्न हुआ ॥११०।। वहाँ वह दो सागरोपमकी आयुका धारक और अल्प ऋद्धिसे संयुक्त हुआ। अहो, कुबुद्धियोंका कुतप भी संसारमें कभी निष्फल नहीं होता है ॥११॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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