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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [२.८४मरीचिरपि तैः साधं पीडितोऽतिपरीषहैः । तत्समानक्रियां कतु प्रवृत्तोऽधविपाकतः ॥४४॥ तन्निन्द्यकर्मकत स्तान् विलोक्य वनदेवता । इत्याह रे शठा यूयं शृणुतास्मद्वचः शुभम् ॥४५॥ वेषेणानेन ये मूढाः कर्मेदं कुर्वतेऽशुभम् । निन्द्यं सत्त्वक्षयं कर्तृश्वभ्राब्धौ ते पतन्त्यधात् ।।८६॥ गृहिलिङ्गकृतं पापमहल्लिङ्गेन मुच्यते । अर्हल्लिङ्गकृतं पापं वज्रलेपोऽत्र जायते ॥८॥ अतोऽत्रेदं जगत्पूज्यं वेषं मुक्त्वा जिनेशिनाम् । गृह्णीध्वमपरं नो चेद्वः करिष्यामि निग्रहम् ।।८।। इति तद्वचसा भीता मुक्त्वा वेषं बुधार्चितम् । जटादिधारण नावेषं ते जगृहस्तदा ॥८९॥ मरीचिरपि तीवात्तमिथ्यात्वोदयतः स्वयम् । परिवाजकदीक्षां स हत्वा वेषं निजं व्यधात् ।।९०॥ तच्छास्त्ररचनेऽस्याशु दीर्घसंसारिणः स्वयम् । शक्तिरासीदहो यस्य यनावि तस्किमन्यथा ॥९१।। अथासौ त्रिजगत्स्वामी ह्येकाकी सिंहवन्महीम् । विहत्याब्दसहस्त्रान्तं मौनेन प्राक्तने वने ॥१२॥ हत्वा धातिरिपून शुक्लध्यानखड्गेन तीर्थराट् । केवलज्ञानसाम्राज्यं स्वीचकार जगद्धितम् ।।१३।। तत्क्षणं यक्षराडस्य दिव्यमास्थानमण्डलम् । स्फुरद्रत्नसुवर्णाद्यैश्चक्रे विश्वाङ्गिपरितम् ॥१४॥ इन्द्राद्याः परया भूत्या सकलनाः सवाहनाः। चक्रिरेऽष्टविधां पूजां भक्त्या दिव्यार्चनैर्विभोः ।।१५।। कच्छाद्याः प्राक्तनास्तेऽस्मादाकर्ण्य बन्धमोक्षयोः । स्वरूप परमार्थेन निर्ग्रन्था बहवोऽभवन् ।।१६।। मरीचिस्मिजगनर्तुः श्रुत्वापि सत्पथं परम् । मुक्तर्न स्वमतं दुर्थीश्चात्यजद् भवकारणम् ॥१७॥ पीना उन्होंने प्रारम्भ कर दिया ॥७९-८३॥ पापके उदयसे अति घोर परीषहोंके द्वारा पीड़ित हुआ मरीचि भी उन लोगोंके साथ उनके समान ही क्रियाएँ करने के लिए प्रवृत्त हो गया ॥८४।। इन भ्रष्ट साधुओंको निन्द्य कर्म करते हुए देखकर वनदेवताने कहा-'अरे मूर्यो, तुम लोग हमारे शुभ वचन सुनो ॥८५।। इन नग्नवेषको धारण कर जो मूढजन ऐसा निन्द्य अशुभ और जीव-घातक कार्य करते हैं, वे उस पापके फलसे घोर नरक-सागरमें पड़ते हैं ॥८६॥ अरे वेषधारियो, गृहस्थ वेष में किया गया पाप तो जिनलिंगके धारण करनेसे छूट जाता है । किन्तु इस जिनलिंगमें किया गया पाप वज्रलेप हो जाता है। ( उसका छूटना बहुत कठिन है ) ॥८७|| अतः जिनेश्वरदेवके इस जगत्पूज्य वेषको छोड़कर तुम लोग कोई अन्य वेष धारण करो। अन्यथा मैं तुम लोगोंका निग्रह करूँगा' ॥८८|| इस प्रकार वनदेवताके वचनसे भयभीत होकर विद्वत्पूज्य जिनवेषको छोड़कर तब उन लोगोंने जटा आदिको धारण करके नाना प्रकारके वेष ग्रहण कर लिये ॥८९॥ मरीचिने भी तीव्र मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जिनवेषको छोड़कर स्वयं ही परिव्राजक दीक्षाको धारण कर लिया ॥९०॥ दीर्घ संसारी इस मरीचिके उस परिव्राजक दीक्षाके अनुरूप शास्त्रकी रचना करनेमें शीघ्र ही शक्ति प्रकट हो गयी । अहो, जिसका जैसा भवितव्य होता है, वह क्या अन्यथा हो सकता है ॥९१।। अथानन्तर वे त्रिजगत्स्वामी ऋषभदेव ( छह मासके योग पूर्ण होनेके पश्चात् ) एक हजार वर्ष तक मौनसे सिंह के समान पृथ्वीपर विहार करके जिसमें दीक्षा ली थी, उसी पूर्व वनमें आये और वहाँपर उन्होंने शुक्लध्यानरूप खड्गसे घातिकर्म रूप शत्रुओंका घात करके जगत्का हितकारक केवलज्ञानरूप साम्राज्य प्राप्त किया और तीर्थराट् बन गये ॥९२-९३॥ उसी समय यक्षराजने स्फुरायमान रत्न-सुवर्णादिसे उनके दिव्य आस्थानमण्डल (समवसरण-सभा) की रचना की, जिसमें सर्व प्राणी यथास्थान बैठ सकें।।९४॥ इन्द्रादिक भी उत्कृष्ट विभूति, अपनी देवांगनाओं और वाहनोंके साथ आये और दिव्य पूजन-सामग्रीसे उन्होंने प्रभुकी भक्तिके साथ आठ प्रकारकी पूजा की ॥९५॥ भगवान्के मुखसे बन्ध और मोक्षका स्वरूप सुनकर उन पुरातन कच्छादिक भ्रष्ट साधुओंमेंसे बहुत-से साधु पुनः परमार्थ रूपसे निर्ग्रन्थ बन गये ॥९६।। दुर्बुद्धि मरीचिने त्रिजगत्प्रभुसे मुक्तिका परम सन्मार्ग रूप For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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