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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २.८३ ] द्वितीयोऽधिकारः साधं पितामहेनैव स्वस्य पूर्वशुभार्जितान् । अन्वभूद् विविधान् भोगान् वनक्रीडादिभिः सह ॥७१॥ कदाचिद् वृषभः स्वामी देवीनर्तनदर्शनात् । विश्वभोगाङ्गराज्यादौ लब्ध्वा संवेगमूर्जितम् ॥७२॥ आरुह्य शिबिकां गत्वा वनं शक्रादिभिः समम् । जग्राह संयमं त्यक्त्वा द्विधा संगान स्वमुक्तये ॥७३॥ तदा कच्छादिभूपालैः स्वामिभक्तिपरायणैः । चतुःसहनसंख्यानैः केवलं स्वामिभक्तये ॥७॥ समं मरीचिरप्याशु द्रव्यसंयममाददे । नग्नवेषं विधायाने स्वामिवन्मुग्धधीस्ततः ॥७५।। त्यक्त्वा देहममत्वादीन भूत्वा मेरुसमोऽचलः । हन्तुं कर्मारिसंतानं कर्मारातिनिकन्दनम् ॥७६॥ दधे योगं परं मुक्त्यै षण्मासावधिमात्मवान् । प्रलम्बितभुजादण्डो ध्यानपूर्व जगद्गुरुः ॥७७॥ ततस्ते क्षुत्पिपासादीन् सर्वान् घोरपरीषहान् । तेन साधं चिरं सोवा पश्चात्सोढुं किलाक्षमाः ॥७८॥ तपाक्लेशभराक्रान्ता दीनास्या धृतिदरगाः। जजल्पुरित्थमन्योन्यं सुष्टु दीनतया गिरा ॥७९॥ अहो एष जगद्भर्ता वज्रकायः स्थिराशयः। न ज्ञायते कियत्कालमेवं स्थास्यति विश्वराट् ॥८॥ अस्माकं प्राणसंदेहो वर्ततेऽस्मसमानकैः । यतोऽनेन समं स्पर्धा कृत्वा मर्तब्यमेव किम् ॥८॥ इत्युक्त्वा लिङ्गिनः सर्वे ते नत्वा तत्क्रमाम्बुजौ । भरतेशमयाद् गन्तुमशक्काः स्वालयं ततः ।।८२॥ तत्रैव कानने पापात्स्वेच्छया फलभक्षणम् । कर्तुं पातुं जलं दीनाः स्वयं प्रारेभिरे शठाः ॥४३॥ शास्त्रोंको पढ़कर और अपने योग्य सम्पदाको प्राप्त करके पूर्वोपार्जित पुण्यकर्मके उदयसे अपने पितामहके साथ ही वनक्रीडा आदिके द्वारा नाना प्रकारके भोगोंको भोगता रहा ॥७०-७१।। किसी समय नीलांजना देवीके नृत्य देखनेसे वृषभदेव स्वामीने समस्त भोगोंमें, देहमें और राज्य आदिमें उत्कृष्ट वैराग्यको प्राप्त होकर और पालकीपर बैठकर इन्द्रादिके साथ वनमें जाकर और अन्तरंग-बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहको अपनी मुक्तिके लिए छोड़कर संयमको ग्रहण कर लिया ।।७२-७३॥ उस समय केवल स्वामि-भक्तिके लिए स्वामिभक्ति-परायण कच्छ आदि चार हजार राजाओंके साथ मरीचिने भी शीघ्र द्रव्य संयमको ग्रहण कर लिया और नग्नवेष धारण करके वह मुग्ध बुद्धि शरीरमें वृषभ स्वामीके समान हो गया। (किन्तु अन्तरंगमें इस दीक्षाका कुछ भी रहस्य नहीं जानता था।) ॥७४-७५|| भगवान् वृषभदेवने देहसे ममता आदि छोड़कर और मेरुके समान अचल होकर कर्मशत्रुओंकी सन्तानका नाश करनेके लिए कर्मवैरीका घातक छह मासकी अवधिवाला प्रतिमायोग मुक्तिप्राप्तिके लिए धारण कर लिया और आत्मसामर्थ्यवान् वे जगद्गुरु अपने भुजादण्डोंको लम्बा करके ध्यानमें अवस्थित हो गये ॥७६-७७॥ भगवान् वृषभदेवके साथ जो चार हजार राजा लोग दीक्षित हुए थे, वे कुछ दिन तक तो भगवान के समान ही कायोत्सर्गसे खड़े रहे और भूख-प्यास आदि सभी घोर परीषहोंको सहन करते रहे। किन्तु आगे दीर्घकाल तक भगवान्के साथ उन्हें सहने में असमर्थ हो गये॥७८। वे सब तपके क्लेशभारसे आक्रान्त हो गये, उनके मुख दीनतासे परिपूर्ण हो गये, उनका धैर्य चला गया, तब वे अत्यन्त दीन वाणीसे परस्परमें इस प्रकार वार्तालाप करने लगे-'अहो, यह जगद्-भर्ता वाकाय और स्थिर चित्तवाला है, हम नहीं जानते हैं कि यह विश्वका स्वामी कितने समय तक इसी प्रकारसे खड़ा रहेगा? अब तो हमारे प्राणोंके रहनेमें सन्देह है ? अपने समान लोगोंको इस प्रभुके साथ स्पर्धा करके क्या मरना है ?' इस प्रकार कहकर वे सब वेषधारी साधु भगवान्के चरण-कमलोंको नमस्कार करके वहाँसे चले । किन्तु भरतेशके भयसे अपने घर जानेमें असमर्थ होकर वहीं वनमें ही पापसे स्वेच्छाचारी होकर वे दीन शठ फलोंका भक्षण करने लगे और नदी आदिका जल १. अ वनाप । २. अ परैः । For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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