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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री वीरवर्धमानचरिते [ २.५६ इत्यादिवर्णनोपेतस्यास्य देशस्य मध्यगा । विनीतास्ति पुरी रम्या विनीतजनसंभृता ॥५६॥ आदितीर्थंकरोत्पत्तौ निर्मिता यात्र नाकिभिः । हेमरत्नमयेनामा तुङ्गचैत्यालयेन च ॥ ५७ ॥ तन्मध्यस्थेन दिव्येन तुङ्गशाला दिगो पुरैः । दीर्घखातिकयालङ घ्या शत्रुभिर्धामपङक्तिभिः ॥ ५८ ॥ जनानां नव व्यासायामा द्वादशयोजनैः । प्रीतिंकरा सुरादीनां तरां किं वर्ण्यते हि सा ॥५९ ॥ दानिनो मार्दवा दक्षा धर्मशीलाः शुभाशयाः । आर्जवादिगुणोपेता रूपलावण्य भूषिताः ॥ ६०॥ धार्मिक उत्तमाचाराः सुखिनो जिनभान्तिकाः । प्रागर्जितमहापुण्या अतीव धनिनः शुभाः ॥ ६१ ॥ वसन्नि तुङ्गसौधेषु विमानेषु सुरा इव । तादृग्गुणशताक्रान्ता देव्याभा यत्र योषितः ॥ ६२ ॥ इच्छन्ति नाकिनो यस्यामवतारं शिवाप्तये । तस्याः स्वमु किसन्मातुर्वर्णनं क्रियतेऽत्र किम् ||६३|| बभूवास्याः पतिः श्रीमान् प्रथमश्चक्रवर्तिनाम् । आदिसृष्टिविधातुस्तुग्ज्येष्ठो हि मरताभिधः ॥ ६४ ॥ अकम्पनादयो भूपा नमिमुख्याः खगेश्वराः । मागधाद्याः सुरा यस्य नमन्ति चरणाम्बुजौ ॥ ६५ ॥ षट्खण्डस्वामिनस्तस्य चरमाङ्गस्य धर्मिणः । निधिरत्न महादेव्यादि सच्छ्रयलंकृतात्मनः ॥ ६६ ॥ त्रिज्ञान सुकलाविद्याविवेकादिगुणाम्बुधेः । कोऽत्र वर्णयितुं शक्तो रूपादिगुणसंपदः ॥६७॥ तस्य पुण्यवतो देवी पुण्यादासीत्सुखाकरा । पुण्याच्या धारिणीसंज्ञा दिव्यलक्षणलक्षिता ||६८ || तयोः स स्वर्गतश्च्युत्वा पुरूरवाचरोऽमरः । सूनुमरीचिनामाभूद् रूपादिगुणमण्डितः ॥ ६९ ॥ सक्रमाद् वृद्धिमासाद्य स्वयोग्यान्नादिभूषणैः । पठित्वानेकशास्त्राणि प्राप्य स्वयोग्य संपदः ||७० || और ध्यानारूढ योगिजनोंसे शोभित हैं ॥ ५५ ॥ इत्यादि वर्णनसे युक्त उस कोशल देशके मध्य में विनीता नामकी एक रमणीक पुरी है, जो विनीत जनोंसे परिपूर्ण है ॥ ५६ ॥ जिस पुरीको आदि तीर्थंकर ऋषभदेवकी उत्पत्तिके समय देवोंने बनाया था । और जो उसके मध्य में स्थित दिव्य, स्वर्ण - रत्नमयी उत्तुंग चैत्यालयसे शोभित है । तथा ऊँचे शाल आदिसे, गोपुरसे और शत्रुओं द्वारा अलंघ्य लम्बी खाई एवं भवनोंकी पंक्तियोंसे शोभित है ।।५७-५८ ।। वह पुरी नौ योजन चौड़ी है, और बारह योजन लम्बी है। अधिक क्या वर्णन करें, वह नगरी देवादिकों को भी अत्यन्त आनन्द करनेवाली है ||५९|| वहाँके निवासी लोग दानी, मृदुस्वभावी, दक्ष, पुण्यशील, शुभाशयी, आर्जव आदि गुण सम्पन्न, रूप लावण्य से भूषित, धार्मिक, उत्तम आचारवान् सुखी, जिनभक्त, पूर्वोपार्जित महापुण्यशाली, अत्यधिक धनी और शुभ परिणामों के धारक हैं, वे वहाँके ऊँचे-ऊँचे भवनोंमें इस प्रकार आनन्द से रहते हैं, जिस प्रकार कि देव लोग अपने विमानोंमें रहते हैं । वहाँकी स्त्रियाँ भी पुरुषोंके समान ही सैकड़ों गुणोंसे युक्त और देवियोंके समान आभाकी धारक हैं ।। ६०-६२ || मोक्षकी प्राप्ति के लिए देव लोग भी जिस नगरीमें अवतार लेनेकी इच्छा करते हैं, उस स्वर्ग और मुक्तिकी जननीस्वरूपा नगरीका और अधिक क्या वर्णन किया जावे ||६३ || उस विनीता नगरीका अधिपति श्रीमान् भरत नरेश हुआ, जो चक्रवर्तियोंमें प्रथम था और आदि सृष्टि-विधाता वृषभदेवका ज्येष्ठ पुत्र था || ६४ || जिस भरत चक्रवर्तीके चरणकमलोंको अकम्पन आदि राजा लोग, नमि आदिक विद्याधर और मागध आदि देवगण नमस्कार करते हैं ||६५ || षट्खण्डके स्वामी, चरमशरीरी, धर्मात्मा, नवनिधि, चौदह रत्न और महादेवी आदि उत्तम लक्ष्मी से अलंकृत, तीन ज्ञान, बहत्तर कला, सर्व विद्याओं और विवेक आदि गुणोंके सागर तथा रूपादि गुणसम्पदावाले उस भरत चक्रवर्तीके गुणों का वर्णन करने के लिए कौन पुरुष समर्थ है || ६६-६७।। उस पुण्यात्मा भरतके पुण्योदयसे सुखकी खानि, पुण्य-विभूषित और दिव्य लक्षणोंवाली धारिणी नामकी रानी थी ||६८ || उन दोनोंके वह पुरूरवा भीलका जीव देव स्वर्गसे चयकर रूपादि गुणोंसे मण्डित मरीचि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ ||६९ || वह क्रमसे अपने योग्य अन्न-पानादिसे और भूषणोंसे वृद्धिको प्राप्त होकर, अनेक For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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