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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २.५५ ] द्वितीयोऽधिकारः साधं स्वपरिवारेण चाष्टमेदैर्महार्चनैः । जलादिफलपर्यन्तैीतनृत्यस्तवादिमिः ॥४२॥ पुनः प्रपूज्य तीर्थेशमूर्तीश्चैत्यगुमे स्थिताः । मेरुनन्दीश्वरादौ च गत्वारूढः स्ववाहनम् ॥४३॥ जिनेन्द्र केवलज्ञानिगणेशादिमहात्मनाम् । महामहं विधायोच्चैर्भक्त्या मूर्ना ननाम सः ॥४४॥ तेभ्यः श्रुत्वा द्विधा धर्म विश्वतस्वादिगर्मितम् । उपाय॑ बहुधा पुण्यं सोऽगमत्स्वालयं ततः ॥१५॥ इत्यसौ विविधं पुण्य कुर्वाणः शुमचेष्टया । क्रीडां कुर्वन् स्वदेवाभिः सौधमेरुवनादिषु ॥४६॥ शृण्वन् मनोहरं गीतं क्वचित्पश्यश्च नर्तनम् । शृङ्गारं रूपसौन्दर्य विलासं दिव्ययोषिताम् ॥४७॥ इत्यादिपरमान् भोगान् भुञ्जानः प्राक्शुभार्जितान् । सप्तहस्ततनूत्सेधः सप्तधात्वतिगाङ्गभाक् ॥१८॥ त्रिज्ञानाष्टर्द्धिभूषाढ्यो नेत्रस्पन्दादिदूरगः । दिव्यदेहधरस्तत्र तिष्ठेच्छाब्धिमध्यगः ॥४९॥ अथेह भारते क्षेत्रे देशोऽस्ति कोशलाभिधः। आर्यखण्डस्य मध्यस्थ आर्याणां मुक्तिकारणः ॥५०॥ यत्रोत्पन्नाश्च मण्यार्या वृत्तेन यान्ति निर्वृतिम् । केचिद् वेयकादिं च केचित्स्वर्ग नरान्तिमम् ॥५॥ केचिच्छ्रावकधर्मेण गच्छन्ति जिनमाक्तिकाः । सौधर्माद्यच्युतान्तं वा लभन्ते शक्रसत्पदम् ॥५२॥ अन्ये सुपात्रदानेन भोगभूमि व्रजन्ति च । केचित्पूर्वविदेहादौ प्राप्नुवन्ति नृपश्रियम् ॥५३॥ ऋषिकेवलियत्याद्या यत्र धर्मादिहेतवे । विहरन्ति जगत्पूज्याः साधं संधैश्चतुर्विधैः ॥५४॥ ग्रामपत्तनपुर्याद्या भान्ति तुङ्गजिनालयैः । वनानि सफलान्यत्र ध्यानारूतैश्च योगिभिः ॥५५॥ चैत्यालयमें जाकर जिनेन्द्र देवोंकी प्रतिमाओंकी जलको आदि लेकर फल पर्यन्त आठ भेदरूपउत्तम द्रव्योंसे गीत, नृत्य, स्तवन आदिके साथ महापूजा की। पुनः चैत्यगुमोंमें स्थित तीर्थंकरोंकी मूर्तियोंका पूजन करके वह अपने वाहनपर आरूढ़ होकर मेरुपर्वत और नन्दीश्वर आदिमें गया और वहाँकी प्रतिमाओंका पूजन करके तथा विदेहादि क्षेत्रोंमें स्थित जिनेन्द्रदेव, केवलज्ञानी और गणधरादि महात्माओंका उच्च भक्तिके साथ महापूजन करके उसने उन सबको मस्तकसे नमस्कार किया। तथा उनसे समस्त तत्त्व आदिसे गर्भित मुनि और श्रावकोंके धर्मको सुनकर और बहुत-सा पुण्य उपार्जन करके वह अपने देवालयको चला गया ॥४१-४५॥ . इस प्रकार वह अनेक प्रकारसे पुण्यको उपार्जन करता हुआ और अपनी शुभ चेष्टासे अपनी देवियों के साथ देव-भवनोंमें तथा मेरुगिरिके वनों आदिमें कोड़ा करता हुआ, उनके मनोहर गीत सुनता हुआ और दिव्य नारियोंके नृत्य-शृंगार, रूप-सौन्दर्य और विलासको देखता हुआ तथा पूर्व पुण्योपार्जित नाना प्रकारके परम भोगोंको भोगता हुआ वह स्वर्गीय सुख भोगने लगा। उसका शरीर सात हाथ उन्नत था, सप्त धातुओंसे रहित और नेत्र-स्पन्दन आदिसे रहित था। वह तीन ज्ञानका धारक, और अणिमादि आठ ऋद्धियोंसे विभूषित था। दिव्य देहका धारक था। इस प्रकार वह सुख-सागरमें निमग्न रहता हुआ अपना काल बिताने लगा ॥४६-४९॥ इस भरतक्षेत्रके आर्यखण्डके मध्य में कोशल नामका एक देश है, जो आर्यपुरुषोंकी मुक्तिका कारण है ॥५०।। जहाँपर उत्पन्न हुए कितने ही भव्य आर्य पुरुष सकल चारित्रके द्वारा मोक्षको जाते हैं, कितने ही वेयक आदि विमानोंमें और स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनभक्त लोग श्रावक धर्मके द्वारा सौधर्मको आदि लेकर अच्युत स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं और इन्द्र-सम्पदाको प्राप्त करते हैं ।।५१-५२॥ कितने ही लोग सुपात्रदानके द्वारा भोगभूमिको जाते हैं और कितने ही पूर्व-विदेहादिमें उत्पन्न होकर राज्यलक्ष्मीको प्राप्त करते हैं ।।५३।। जिस आर्य क्षेत्रमें केवली, ऋषि और मुनिजनादिक जगत्पूज्य पुरुष चतुर्विध संघके साथ धर्म आदिकी प्रवृत्तिके लिए सदा विहार करते रहते हैं ॥५४॥ जहाँपर ग्राम, पत्तन और पुरी आदिक उत्तुंग जिनालयोंसे शोभायमान हैं और जहाँके वन फल-संयुक्त हैं For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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