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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [२.२८भोगोपभोगवस्तूनि मनोऽभीष्टसुसंपदः । धर्मप्राप्त्या किलाप्यन्ते स्वजनाद्याश्च शर्मदाः ॥२८॥ स धर्मो मद्यमांसादिपञ्चोदुम्बरवर्जनैः । सम्यक्त्वेन ह्यहिंसाद्यणुव्रतैः पञ्चभिस्त्वया ॥२९॥ गुणव्रतत्रिकैः सारैः शिक्षाबतचतुष्टयैः । साध्यते गृहिमिश्चैकदेशः स्वर्गसुखप्रदः ॥३०॥ इति तद्वचसा त्यक्त्वा मद्यमांसवधादिकान् । नत्वा मुनीन्द्रपादाब्जौ श्रद्धया परया समम् ॥३१॥ जग्राह दृष्टिना साध भिल्लाधिपः शुभाशयः। द्वादशैव व्रतान्याशु श्रावकस्य वृषाप्तये ॥३२॥ निदाघे तृषितो यद्वत्प्राप्य पूर्ण सरोवरम् । संसारदुःखमीरा सत्यं जैनेश्वरं मतम् ॥३३॥ शास्त्राभ्यसनशीलो वा विद्वद्धृतं गुरोः कुलम् । रोगी वा रोगनि शं निधानं वा दरिद्रवान् ॥३॥ लभते परमानन्दं तथा सन्तोषमूर्जितम् । अत्यन्तदुर्लभेनात्र धर्मलाभेन सोऽगमत् ॥३५।। ततो यतेः स पुण्यात्मा दर्शयित्वा पथोत्तमम् । नमस्कारं मुहः कृत्वा जगाम स्वाश्रयं मुदा ॥३६॥ आजन्मान्तं प्रपाल्योच्चैः सर्व व्रतकदम्बकम् । अन्ते समाधिना मृत्वा व्रतजातशुभोदयात् ॥३७॥ सौधर्माख्ये महाकल्पेऽनेकशर्माकरेऽभवत् । महर्द्धिकोऽमरो भिल्ल एकसागरजीवितः ॥३८॥ शिलासंपुटग स तत्राप्य नवयौवनम् । मुहूर्तेन विलोक्याशु विमानादिश्रियं पराम् ॥३९॥ समस्तं प्राग्भवं ज्ञात्वा व्रतादिजनितं फलम् । तत्क्षणाप्तावधिज्ञानाद्धर्मेऽधात्स्वमतिं दृढाम् ॥४०॥ ततश्चैत्यालयं गत्वा मुदा धर्मादिसिद्धये । चक्रेऽसौ परमां पूजां प्रतिमानां जिनेशिनम् ॥४१॥ वाला राज्य प्राप्त होता है और इन्द्रादिके सुख प्राप्त होते हैं, मनोवांछित भोगोपभोगकी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं और सभी अभीष्ट सम्पदाएँ मिलती हैं, तथा जिस धर्मकी प्राप्तिसे सुखके देनेवाले स्वजन-परिजन आदि मिलते हैं, वह धर्म मद्य, मांस आदिके तथा पंच उदुम्बर फलोंके भक्षणके त्यागसे प्राप्त होता है। अतः हे भव्य, तू सम्यक्त्वके साथ, तथा अहिंसादि पाँच अणुव्रतों, सारभूत तीन गुणत्रतों और चार शिक्षाव्रतोंके साथ उस धर्मको धारण कर । यह स्वर्गके सुखोंको देनेवाला एकदेशरूप धर्म गृहस्थोंके द्वारा साधा जाता है ॥२७-३०॥ मुनिराजके इन वचनोंसे उस भिल्लराजने मद्य-मांसादिका भक्षण और जीवघात आदिका त्याग कर और परम श्रद्धाके साथ मुनिराजके चरण-कमलोंको नमस्कार कर शुभ हृदयवाला होकर सम्यग्दर्शनके साथ श्रावकके बारह ही व्रतोंको धर्म-प्राप्तिके लिए शीघ्र ग्रहण कर लिया॥३१-३२॥ जैसे ग्रीष्मऋतमें प्यासा मनुष्य जलसे परिपूर्ण सरोवरको पाकर अति प्रसन्न होता है, उसी प्रकार वह भील भी संसारके दुःखोंसे डरकर और जिनेश्वरोपदिष्ट सत्य धर्मको प्राप्त कर अतिहर्षित हुआ। जैसे शास्त्राभ्यासका इच्छुक मनुष्य विद्वानोंसे भरे हुए गुरुकुलको पाकर हर्षित होता है, अथवा जैसे रोगी मनुष्य रोग-नाशक औषधिको पाकर प्रमुदित होता है, अथवा जैसे दरिद्री पुरुष निधानको पाकर परमानन्दको प्राप्त होता है, उसी प्रकार अत्यन्त दुर्लभ धर्मके लाभसे वह भिल्लराज भी अत्यन्त सन्तोषको प्राप्त हुआ ॥३३-३५॥ तत्पश्चात् वह पुण्यात्मा भिल्लराज मुनिराजको उत्तम मार्ग दिखलाकर और उन्हें बार-बार नमस्कार करके हर्षित होता हुआ अपने स्थानको चला गया ॥३६॥ उसने अपने जीवन-पर्यन्त उस सब व्रत-समुदायको उत्तम प्रकारसे पालन किया और अन्तमें समाधिके साथ मरण कर व्रत-पालनसे उत्पन्न हुए पुण्यके उदयसे अनेक सुखोंके भण्डार ऐसे सौधर्म नामके महाकल्पमें एक सागरोपमकी आयुका धारक महद्धिक देव उत्पन्न हुआ ॥३७-३८।। उपपादशय्याके शिलासम्पुटगर्भ में अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही नवयौवन अवस्थाको प्राप्त कर और तत्क्ष ग प्राप्त हुए अवधिज्ञानसे पूर्वभवमें किये गये व्रतादिका फल जानकर और स्वर्ग-विमानादिकी उत्कृष्ट लक्ष्मीको देखकर उसने धर्म में अपनी मतिको और भी दृढ़ किया ॥३९-४०॥ तदनन्तर धर्म आदिकी सिद्धिके लिए हर्षित होकर उसने अपने परिवारके साथ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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