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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २.२७] द्वितीयोऽधिकारः यत्रोत्पन्नमहद्भिश्च तपसा साध्यते यदि । स्वर्गों मोक्षोऽहमिन्द्रत्वं तत्र का वर्णना परा ॥१४॥ द्विषष्ठयोजनायामा नवयोजनविस्तृता । चतुःपथसहस्राठ्या सहस्रद्वारभूषिता ॥१५॥ शतपञ्चलघु द्वारा द्विषट्सहस्रसत्पथा । सद्धार्मिकजनैः पूर्णा महापुण्यनिबन्धना ॥१६॥ तन्मध्ये नामिवद् भाति नगरी पुण्डरीकिणी । आह्वयन्तीव नाकेशं चैत्यगेहस्थकेतुभिः ॥१७॥ तस्या बाह्ये भवेदम्यं मधुकाख्यं वनं महत् । शीतलं सफलं द्वेधा ध्यानस्थमुनिभूषितम् ॥१८॥ वसेद व्याधाधिपस्तन पुरूरवाभिधानकः । भद्रो मद्रा प्रिया तस्य कालिकाख्यामवच्छुभा ॥१९॥ कदाचित्कानने तस्मिन् वन्दनायै जिनेशिनः । मुनिः सागरसेनाख्य आयातः सत्पथे व्रजन् ॥२०॥ सार्थवाहेन धर्मस्य स्वामिना सह सोऽशुभात् । सार्थों मिल्लैहीतोऽखिलोऽशुभात् किं न जायते ॥२१॥ अतस्तत्र मुनान्द्रं तमीर्यापथविलोचनम् । दिल्योहाधर्मसंलीनं पर्यटन्तमितस्ततः ॥२२॥ दूराद्वीक्ष्य मृगं मत्वा हन्तुकामः पुरूरवाः । निषिद्धो द्रुतमित्युक्त्वा शुभात्तत्कान्तया गिरा ॥२३॥ वनदेवाश्चरन्तीमे विश्वानुग्रहकारिणः । न कर्तव्यमिदं नाथ त्वया कर्माधकारणम् ॥२४॥ तद्वचःश्रवणात्काललब्ध्या भूत्वा प्रसन्नधीः । उपत्यासौ मुनीशं तं ननाम शिरसा मुदा ॥२५॥ यतिः स्वकृपयेत्याह तं मन्यं प्रति धर्मधोः । मद्रेदं मद्वचःसारं शृणु सद्धर्मसूचकम् ॥२६॥ लभ्यते येन धर्मेण लक्ष्मीलोकत्रयोद्भवा । राज्यं क्षीणारिचक्रं च सुखमिन्द्रादिगोचरम् ॥२७॥ उनकी आयु एक पूर्वकोटी वर्ष प्रमाण है और वहाँपर सदा चौथा काल ही रहता है ॥१३॥ जहाँपर उत्पन्न हुए महामनुष्य तपके द्वारा स्वर्ग, मोक्ष और अहमिन्द्रपना ही सिद्ध करते हैं, वहाँका और क्या अधिक वर्णन किया जा सकता है ॥१४|| उस पुष्कलावती देशमें एक पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है, जो कि बारह योजन लम्बी है, नौ योजन चौड़ी है, एक हजार चतुःपथों ( चौराहों )से संयुक्त है, एक हजार द्वारोंसे विभूषित है, पाँच सौ छोटे द्वारोंवाली है, बारह हजार राजमार्गोंसे युक्त है, धार्मिक जनोंसे परिपूर्ण है और महापुण्यकी कारणभूत है ।।१५-१६।। यह पुण्डरोकिणी नगरी उस देशके मध्यमें इस प्रकारसे शोभित है, जैसे कि शरीरके मध्यमें नाभि शोभती है । वह नगरी चैत्यालयोंके ऊपर उड़नेवाली ध्वजाओंसे मानो स्वर्गलोकको बुलाती हुई-सी जान पड़ती है ॥१७॥ उस नगरीके बाहर मधुक नामका एक रमणीक महावन है, जो शीतल छायावाले और फले-फूले हुए वृक्षोंसे युक्त तथा ध्यानस्थ मुनियोंसे भूषित है ॥१८॥ उस वनमें पुरूरवा नामका भद्र प्रकृतिका एक भीलोंका स्वामी रहता था। उसकी कालिका नामकी एक भद्र और कल्याणकारिणी प्रिया थी॥१९|| किसी समय जिनदेवकी वन्दनाके लिए जाते हुए सागरसेन नामक एक मुनिराज उस वनमें आये । वे मुनिराज धर्मके स्वामी किसी सार्थवाहके साथ आ रहे थे कि मार्गमें उस सार्थवाहको पापोदयसे भीलोंने पकड़ लिया। अशुभ कर्मके उदयसे क्या नहीं हो जाता है ।।२०-२१॥ सार्थवाहके साथसे बिछुड़कर और दिशा भूल जानेसे ईर्यासमितिसे इधर-उधर घूमते हुए धर्म में संलग्न उन मुनिराजको पुरूरवा भीलने दूरसे देखा और उन्हें मृग समझकर बाण द्वारा मारनेके लिए उद्यत हुआ। तभी पुण्योदयसे उसकी स्त्रीने शीघ्र ही यह कहकर उसे मारनेसे रोका कि 'अरे, ये तो संसारका अनुग्रह करनेवाले वनदेव विचर रहे हैं। हे नाथ, तुम्हें महापाप कर्मका कारणभूत यह निन्द्य कार्य नहीं करना चाहिए' ॥२२-२४|| अपनी स्त्रीके ये वचन सुननेसे, और काललब्धिके योगसे प्रसन्नचित्त होकर वह उन मुनिराजके पास गया और अति हर्षके साथ मस्तकसे उन्हें नमस्कार किया ॥२५॥ धर्मबुद्धि उन मुनिराजने अपनी दयालुतासे उस भव्यसे कहा'हे भद्र, मेरे उत्तम धर्मके प्रकट करनेवाले सारभूत वचनको सुनो ॥२६॥ जिस धर्मके द्वारा तीनों लोकोंमें उत्पन्न होनेवाली लक्ष्मी प्राप्त होती है, जिसके द्वारा शत्रुचक्रका नाश करने For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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