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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयोऽधिकारः वीरं वीराग्रिमं वीरं कर्ममल्लनिपातने । परीषहोपसर्गादिजये धैर्याय नौमि च ॥१॥ अथ-जम्बूद्रुमोपेतो जम्बूद्वीपो विराजते । मध्ये द्वीपाब्धि सर्वेषां चक्रवर्तीव भूभुजाम् ॥२॥ तन्मध्ये मेरुराभाति सुदर्शनो महोत्रतः । मध्ये विश्वाचलानां च देवानामिव तीर्थकृत् ॥३॥ तस्मात्पूर्वदिशो भागे भ्राजते क्षेत्रमुत्तमम् । रम्यं पूर्व विदेहाख्यं धार्मिकैः श्रीजिनादिमिः ॥४॥ यतोऽत्र तपसानन्ता विदेहा मुनयश्चिदा । भवन्त्यत इदं क्षेत्रं विधत्ते सार्थनाम हि ॥५॥ तन्मध्यस्थितसीताया नद्या उत्तरदिकतटे । विषयः पुष्कलावत्यमिधो माति महान् श्रिया ॥६॥ शोभन्ते यत्र तीर्थेशप्रासादास्तुङ्गकेतुभिः । पुर-ग्राम-वनादौ सर्वत्र नान्यसुरालयाः ॥७॥ विहरन्ति गणेशाद्याश्चतुःसंघविभूषिताः । धर्मप्रवृत्तये यत्र नैव पाखण्डिलिङ्गिनः ।।८।। अहिंसालक्षणो धर्मों वर्ततेऽहन्मुखोद्गतः । यतिभिः श्रावकैर्नित्यो नापरः सत्वबाधकः ॥९॥ पठन्ति चाङ्ग पूर्वाणि यत्रत्या सुविदः सदा । ज्ञानायाज्ञाननाशाय न कुशास्त्राणि जातुचित् ।।१०॥ प्रजा वर्णत्रयोपेता यत्र सन्ति सुखान्विताः । शश्वद्धर्मरता दक्षा बहुश्रयाख्या न च द्विजाः ॥११॥ जायन्ते गणनातीतास्तीर्थनाथा गणाधिपाः । चक्रिणो वासुदेवाचा यत्र मर्त्य सुरार्चिताः ॥१२॥ शतपञ्चधनुस्तुङ्गं विद्यते यत्र सदपुः। पूर्वकोटिप्रमाणायुः कालश्चतुर्थ एव च ॥१३॥ Ammam __ कर्मरूपी मल्लको गिराने में वीराग्रणी और परीषह-उपसगोंके जीतनेवाले श्री वीरप्रभुको मैं धैर्य-प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ ॥१।। असंख्यात द्वीप-समुद्रोंवाले इस मध्यलोकके मध्यमें राजाओंमें चक्रवर्तीके समान जम्बूवृक्षसे संयुक्त जम्बूद्वीप शोभित है ।।२।। उस जम्बूद्वीपके मध्यमें महान् उन्नत सुदर्शन नामका मेरुपर्वत देवोंके मध्यमें तीर्थंकरके समान सर्व पर्वतोंमें शिरोमणि रूपसे शोभित है ॥३॥ उस मेरुपर्वतके पूर्व दिशा-भागमें पूर्व विदेह नामका एक उत्तम क्षेत्र श्री जिनेन्द्रदेवोंसे और धार्मिकजनोंसे रमणीय शोभित है ॥४॥ यतः उस क्षेत्रसे अनन्त मुनिगण तप करके देह-रहित हो गये हैं, अतः वह क्षेत्र ‘विदेह' इस सार्थक नामको धारण करता है ॥५॥ उस पूर्व विदेह क्षेत्रके मध्यमें स्थित सीता नदीके उत्तर दिशावर्ती तटपर लक्ष्मीसे शोभायमान एक पुष्कलावती नामका देश है ।।६।। उस देशमें पुर, ग्राम और वनादिमें सर्वत्र उन्नत ध्वजाओंसे युक्त तीर्थंकरोंके मन्दिर शोभायमान हैं, वैसे सुन्दर देवोंके भवन भी नहीं हैं ॥७॥ उस देशमें सर्वत्र चतुर्विध संघसे विभूषित तीर्थकर और गणधर देवादिक धर्म-प्रवर्तनके लिए विहार करते रहते हैं । उस देशमें कोई भी पाखण्डी वेषधारी नहीं है ॥८॥ उस देश में अर्हन्त भगवन्तके मुखारविन्दसे प्रकट हुआ अहिंसा लक्षण धर्म ही मुनि और श्रावकजनोंके द्वारा नित्य प्रवर्तमान रहता है। इसके अतिरिक्त जीवोंको बाधा पहुँचानेवाला और कोई धर्म वहाँ नहीं है ।।९॥ जहाँ के ज्ञानीजन नित्य ही ज्ञानकी प्राप्ति और अज्ञानके नाशके लिए अंग और पूर्वगत शास्त्रोंको पढ़ते हैं। वहाँपर कुशास्त्रोंको कभी भी कोई व्यक्ति नहीं पढ़ता है ।।१०।। वहाँकी सर्व प्रजा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णवाली ही है । सारी प्रजा सुख-संयुक्त, निरन्तर धर्म-पालनमें निरत और बहुत लक्ष्मीसे सम्पन्न है । वहाँपर ब्राह्मण वर्ण नहीं है ॥११॥ उस देशमें मनुष्य और देवोंसे पूजित असंख्य तीर्थंकर, गणधर, चक्रवर्ती और वासुदेव आदि महापुरुष उत्पन्न होते हैं ॥१२॥ जिस विदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंके शरीर पाँच सौ धनुष उन्नत हैं, For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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