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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकोनविंशोऽधिकारः मोहनिद्राघहन्तारं श्रीवीरं ज्ञानभास्करम् । दीपकं विश्वतत्त्वानां वन्दे भन्याब्जबोधकम् ॥१॥ अथ शान्ते जनक्षोभे दिव्यभाषोपसंहृते । त्रिजगद्गम्यमध्यस्थं विश्वाङ्गिबोधनोद्यतम् ॥२॥ भगवन्तं मुदा नत्वा सौधर्मेन्द्रः सुधीर्महान् । भक्त्येति स्तोतुमारेभे स्वसिद्ध चै गुणवित्तराम् ॥३॥ जगत्सारैर्गुणतातैन्यसंबोधनोद्भवः । तत्सुतीर्थविहारायोपकाराय च धीमताम् ॥१॥ त्वां जगस्त्रयदक्षेड्यं स्तोष्येऽनन्तगुणार्णवम् । केवलं देव शुद्धयर्थ स्ववचःकायचेतसाम् ॥५॥ स्वामभिष्टुवतां यस्मास्त्रिजगच्छ्रीसुखादयः । आविर्भवन्ति सर्वाश्च शुद्धयोऽघमलात्ययात् ॥६॥ निश्चित्येत्याप्यसामग्री सकलां त्वत्सुताविमाम् । विशिष्टफलकाङ्क्षी को विद्वांस्त्वां स्तौति न प्रभो ॥७॥ स्तुतिः स्तोता महान् स्तुत्यः फलं चेति चतुर्विधा । सामग्री परमा ज्ञेया त्वत्स्तवेऽधविनाशिनी ॥८॥ अर्हतां गुणराशीनां याथातथ्येन कीर्तनम् । क्रियते यद्विचारझैः सा स्तुतिमहती शुभा ॥९॥ पक्षपातच्युतो वाग्मी यो गुणागुणतत्त्ववित् । आगमज्ञः कवीन्द्रः स स्तोता सदृष्टिरुत्तमः ॥१०॥ योऽनन्तदर्शनज्ञानाद्यनन्तगुणवारिधिः । वीतरागो जगन्नाथः स्तुत्यः स परमः सताम् ॥११॥ साक्षाद्यच्च परं पुण्यं जायते स्तुतिकारिणाम् । क्रमात् स्तुत्यगुणवातं सकलं तत्स्तुतेः फलम् ॥१२॥ मोहरूपी निद्राके नाशक, विश्वतत्त्वोंके प्रकाशक और भव्यजीवरूपी कमलोंके प्रबोधक ऐसे ज्ञान-भास्कर श्री वीर स्वामीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ अथानन्तर दिव्यध्वनिके उपसंहार होनेपर तथा मनुष्योंका कोलाहल शान्त होनेपर महान विद्वान् एवं गुणवेत्ता सौधर्मेन्द्रने तीन लोकके जीवोंके मध्य में स्थित और समस्त प्राणियोंके सम्बोधन करनेमें उद्यत श्री वीर भगवानको हर्षसे नमस्कार कर अपने गुणोंकी सिद्धिके लिए, बुद्धिमानोंके उपकारके लिए और यहाँपर धर्मतीर्थ-प्रवर्तनार्थ विहार करनेके लिए जगतमें सारभत, भव्योंका सम्बोधन करनेवाले गुणसमूहके कीर्तनसे इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥२-४॥ हे देव, मैं केवल अपने मन-वचन-कायकी शुद्धिके लिए तीन लोकके दक्ष पुरुषोंके द्वारा पूज्य और अनन्त गुणोंके सागर ऐसे आपकी स्तुति करता हूँ। क्योंकि आपकी स्तुति करनेवाले जीवों के पापमलके विनाशसे सर्वप्रकारकी शुद्धियाँ और तीन लोककी लक्ष्मी सुख आदिक सम्पदाएँ स्वयं ही प्रकट होते हैं। ऐसा निश्चय कर हे प्रभो, आपकी स्तुति करनेके लिए यह सर्व योग्य सामग्री पाकर विशिष्ट फलका इच्छुक कौन विद्वान आपकी स्तुति नहीं करता ? अर्थात् सभी करते हैं ॥५-७|| आपके स्तवन करने में स्तुति, स्तोता (स्तुति करनेवाला) महान स्तुत्य (स्तुति करनेके योग्य पुरुष ) और स्तुतिका फल; यह चार प्रकारकी पापविनाशिनी उत्तम सामग्री ज्ञातव्य है ।।८। गुणोंकी राशिवाले अर्हन्तोंके गुणोंका जो विचारशील पुरुषोंके द्वारा यथार्थरूपसे कीर्तन किया जाता है, वह महाशुभ स्तुति कही जाती है ॥९॥ जो पक्षपातसे रहित, गुण-अवगुणरूप तत्त्वोंका वेत्ता, आगमज्ञ, कवीन्द्र, सम्यग्दृष्टि वाग्मी (गुणवर्णन करनेवाला ) पुरुष है, वह उत्तम स्तोता कहलाता है ॥१०॥ जो अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि अनन्त गुणोंका समुद्र है, वीतराग है, जगत्का नाथ है, वह परम पुरुष ही सज्जनोंका स्तुत्य माना गया है ॥११॥ स्तुतिका साक्षात् फल स्तुति करनेवाले मनुष्योंको परम पुण्यका प्राप्त होना है और परम्परा फल क्रमसे स्तुत्य देवसे सर्व गुण-समूहका प्राप्त For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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