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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०३ १९.२६] एकोनविंशोऽधिकारः इत्यासायेह सामग्री स्वामहं स्तोतुमुथतः । देवाद्य मां पुनीहि त्वं दृष्टया प्रसन्नया मुदे ॥१३॥ अद्य नाथ भवद्वाक्यांशुभिमिथ्यातमोऽखिलम् । भिन्नं ननाश मन्यानामन्तःस्थं भान्वगोचरम् ॥१४॥ त्वद्वचोऽसिप्रहारेण भग्नो मोहारिरीश भोः। सगणं त्वां विहायाश्रितो मनोऽक्षजडात्मनाम् ॥१५॥ त्वद्धर्मदेशनावज्रधातेन प्रहतः स्मरः । देवाद्य मरणावस्थां प्राप सहाक्षतस्करैः ॥१६॥ नाथ स्वत्केवल ज्ञानचन्द्रोदयेन धीमताम् । दृष्ट्यादिरखदाताध ववृधे धर्मवारिधिः ॥१७॥ भगवन्नद्य पापारिस्त्रिजगदुःखदायकः । मवद्धर्मोपदेशायुधेन याति क्षयं सताम् ॥१८॥ त्वत्तो नाथाद्य संप्राप्य दृग्वृत्ताद्याः पराः श्रियः । केचिन्मुक्तिपथे भव्या वजन्त्यनन्तशर्मणे ॥१९॥ रत्नत्रयतपोबाणान् केचिदासाद्य मुक्तये। ईशाध मवतो घ्नन्ति कर्मारातींचिरागतान् ॥२०॥ त्वं जगत्त्रयभव्येभ्यो दातासि प्रत्यहं प्रभो। सम्यग्दृग्ज्ञानचारित्रधर्मचिन्तामणीन् परान् ॥२१॥ चिन्तितार्थप्रदान् साराननान् सुखसागरान् । अतः कस्त्वत्समो लोके महादाता महाधनी ॥२२॥ स्वामिन्नद्य जगत्सव मोहनिद्रास्तचेतनम् । स्वद्ध्वनीनोदयाबुद्धं सुप्तोस्थितमिवाभवत् ॥२३॥ विभो भवत्प्रसादेन सन्तस्त्वञ्चरणाश्रिताः । यान्ति सर्वार्थसिद्धिं च दिवं केचित्परं पदम् ॥२४॥ यथैष सकलः संघः पशुभिश्च सुरैः समम् । सजोऽभूत्वगिरा हन्तुं कर्मसंतानमञ्जसा ॥२५॥ तथा मवद्विहारेणात्रार्य खण्डोद्भवा विदः। विज्ञाय विश्वतत्त्वानि हनिष्यन्त्यघसंचयम् ॥२६॥ ~ ~ ~ ~~- ~~- ~ ~- ~ होना है ।।१२।। इस प्रकार यहाँपर स्तुतिकी उत्तम सामग्रीको पाकर हे देव, मैं आपकी स्तुति करनेके लिए उद्यत हुआ हूँ। हे भगवन् , प्रसन्न दृष्टिसे आप आज मुझे पवित्र करें ॥१३।। इस प्रकार प्रस्तावना करके इन्द्र स्तुति करना प्रारम्भ करता है___ हे नाथ, आज आपके वचनरूप किरणोंके द्वारा भव्यजीवोंके अन्तरंगमें स्थित और सूर्यके अगोचर ऐसा समस्त मिथ्यान्धकार नष्ट हो गया है ॥१४|| हे भगवन् , आपके वचनरूप तलवारके प्रहारसे मोहरूपी शत्रु विनष्ट हो गया है, इसीसे वह सकलगण-सहित आपको छोड़कर इन्द्रिय और मनके विषयों में निमग्न जड़ात्माओंके आश्रयको प्राप्त हुआ है ।।१५।। हे देव, आपके धर्मदेशनारूपी वज्रके प्रहारसे आहत हुआ कामदेव आज अपने इन्द्रियचोरोंके साथ मरण अवस्थाको प्राप्त हुआ है ॥१६॥ हे नाथ, आपके केवलज्ञानरूप चन्द्रके उदयसे बुद्धिमानोंको सम्यग्दर्शनादि रत्नोंका दाता धर्मरूपी समुद्र वृद्धिको प्राप्त हुआ है ।।१७।। हे भगवन् , आज तीन लोकको दुःख देनेवाला भव्योंका पापरूपी शत्रु आपके धर्मोपदेशरूपी आयुधसे क्षयको प्राप्त हुआ है ॥१८॥ हे नाथ, आज आपसे सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र आदि उत्तम लक्ष्मीको पाकरके कितने ही भव्यजीव अनन्त सुखकी प्राप्तिके लिए मुक्तिमार्गपर चल रहे है ।।१९।। हे ईश, आपसे रत्नत्रय और तपरूपी बाणोंको पाकरके कितने ही भव्य आज मुक्ति पानेके लिए चिरकालसे साथमें आये ( लगे) हुए कर्मरूपी शत्रुओंको मार रहे हैं ॥२०॥ हे प्रभो, आप महान्-महान दाता हैं, क्योंकि तीन लोकके भव्य जीवोंको प्रतिदिन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र धर्मरूप उत्तम चिन्तामणिरत्न देते हैं ।।२१।। वे धर्मरत्न चिन्तित पदार्थोंको देनेवाले हैं, सारभूत हैं, अनमोल हैं और सुखके सागर हैं। अतः लोकमें आपके समान कौन महान दाता और महाधनी है ।।२२।। हे स्वामिन् , आज मोहनिद्रासे नष्ट चेतनाशक्तिवाला यह जगत् आपके ध्वनिरूप सूर्यके उदयसे प्रबुद्ध होकर सोनेसे उठे हुएके समान प्रतीत हो रहा है ।।२३।। हे विभो, आपके प्रसादसे आपके चरणोंका आश्रय लेनेवाले लोगोंमेंसे कितने ही स्वर्गको, कितने ही सर्वार्थसिद्धिको और कितने ही परम पद मोक्षको जा रहे हैं ॥२४॥ जिस प्रकार पशुओं और देवोंके साथ यह सर्व चतुर्विध संघ आपकी वाणीसे कर्म सन्तानका घात करनेके निश्चयसे सजित हुआ है, उसी प्रकार आपके विहारसे इस आर्यखण्डमें उत्पन्न हुए अन्य ज्ञानी जन भी सर्व तत्त्वोंको जानकर अपने पापोंके संचयका घात करेंगे अन्यजीव For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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