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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०१ १८.१७० ] अष्टादशोऽधिकारः सद्यः श्रीवर्धमानाहत्तत्त्वोपदेशनेन च । सर्वाङ्गार्थपदान्येव हृदा परिणतिं ययुः ॥१६३॥ अर्थरूपेण पूर्वाह्ने श्रावणे बहुले तिथौ । पक्षादौ योगशुद्धयास्य हीन्द्रभूतिगणेशिनः ॥१६४॥ ततः पूर्वाणि सर्वाणि भागेऽस्य पश्चिमे धिया । दिवसस्यार्थरूपेण प्रादुरासन विधेः क्षयात् ॥१६५॥ ततोऽसौ ज्ञातसर्वाङ्ग पूर्वो धीचतुष्कवान् । तीक्ष्णप्रज्ञोरुबद्धयाखिलाङ्गानां रचनां पराम् ।।१६६॥ चकार विश्वमव्यानामुपकारप्रसिद्धये । पूर्वरात्रे सुमस्या पदवस्तुप्राभृतादिभिः ॥१६७॥ पूर्वाणां पश्चिमे भागे यामिन्या रचनां शुभाम् । पदग्रन्थादिरूपेण चक्रेऽसौ तीर्थवृत्तये ॥१६॥ इति वृषपरिपाकाद् गौतमः श्रीगणेशः सकलयतिगणानां मुख्य आसीत्सुराय॑ः । निखिलश्रुतविधाता चेति मत्वा सुधर्म कुरुत हृदय शुद्धया भो बुधाः कार्यसिद्धयै ॥१६९॥ योऽभूधर्ममयो व्यनक्ति च सतां धर्म जगच्छमणे ____धर्मेणेह हि वर्ततेऽघविजयी धर्माय लोकं व्रजन् । धर्माद् वक्ति शिवालयं प्रकटयेद्धर्मस्य मार्ग गिरा धर्मे दत्तमनाः स वीरजिनपो दद्यात्स्वधर्म मम ॥१७॥ इति भट्टारक-श्रीसकलकीतिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते भगवद्धर्मोपदेशवर्णनो नामाष्टादशोऽधिकारः ॥१८॥ लोकमें सर्व अभीष्ट फलोंको देनेवाली है और इसी मनकी शुद्धिसे आधे क्षणमें केवलज्ञान सम्पदा प्राप्त हो जाती है ॥१६२।। श्री वर्धमान जिनके तत्त्वोपदेशसे सर्व अंगश्रुतके बीज पद इन्द्रभूति गौतम गणधरके हृदयमें श्रावण कृष्णपक्षके आदि दिन अर्थात् प्रतिपदाके पूर्वाह्नकालमें योगशुद्धिके द्वारा अर्थरूपसे परिणत हो गये ॥१६३-१६४।। तत्पश्चात् उसी दिनके पश्चिम भागमें श्रुतज्ञानावरण कर्म के विशिष्ट क्षयोपशमसे प्रकट हुई बुद्धिके द्वारा सभी (चौदह ) पूर्व अर्थरूपसे परिणत हो गये ॥१६५|| भावार्थ-श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके पूर्वाह्नकालमें तो गौतम अंगश्रुतके वेत्ता हुए और अपराह्नकालमें चतुर्दश पूर्वोके वेत्ता बने । इसके पश्चात् सर्व अंग-पूर्व के ज्ञाता और चार ज्ञानके धारी गौतम गणधरने अपनी तीक्ष्ण प्रज्ञा और विशाल बुद्धि के द्वारा समस्त अंगोंकी उत्कृष्ट रचना समस्त भव्यजीवोंके उपकारकी सिद्धिके लिए पूर्व रात्रिमें सुभक्तिसे की। और रात्रिके पश्चिम भागमें पद, वस्तु, प्राभृत आदिके द्वारा सर्व पूर्वोकी शुभ रचना पद-ग्रन्थादिरूपसे धर्मतीर्थकी प्रवृत्तिके लिए की ।।१६६-१६८।। इस प्रकार धर्मके परिपाकसे देवोंसे पूज्य श्री गौतम गणधर सर्वसाधु समूहके प्रमुख हुए और सकलश्रुतके विधाता बने । ऐसा समझकर हे ज्ञानी जनो, स्वाभीष्ट कार्य सिद्धिके लिए तुम लोग हृदयकी शुद्धिके साथ उत्तम धर्मका पालन करो ॥१६९।। जो स्वयं धर्ममय हुए, जिन्होंने जगत्के सुखके लिए सन्तोंको धर्मका उपदेश दिया, जो धर्म के द्वारा ही पापोंके जीतनेवाले हुए, जिन्होंने धर्मके लिए लोकमें विहार किया, धर्मसे शिवपदको प्राप्त हुए, अपनी वाणीसे धर्मका मार्ग प्रकट किया और धर्म में मन लगाया, वे श्री वीरजिनेन्द्र मुझे अपना धर्म देवें ।।१७०।। इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीर्ति-विरचित श्रीवीरवर्धमानचरितमें भगवान्के धर्मोपदेशका वर्णन करनेवाला अठारहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ॥१८॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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