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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ श्री-वीरवर्धमानचरित भ. कुमुदचन्द्रने अपने महावीर रासकी रचना राजस्थानी हिन्दीमें की है और कथानक-वर्णनमें प्रायः सकलकीतिके वर्धमानचरित्रका ही अनुसरण किया है। इसकी रचना सं. १६०९ मगसिर मासकी पंचमी रविवारको पूर्ण हुई है। कवि नवलशाहने अपने वर्धमानपुराणकी रचना हिन्दी भाषामें की है और कथानक-वर्णनमें भी सकलकीर्तिका अनुसरण किया है, फिर भी कुछ स्थलोंपर कविने तात्त्विक विवेचनमें तत्त्वार्थसूत्र आदिका आश्रय लिया है। कविने इसकी रचना वि. सं. १८२५ के चैतसुदी १५ को पूर्ण की है। यह पुराण सूरत से मुद्रित हो चुका है। सकलकीर्तिने इस प्रस्तुत चरित्रमें परम्परागत चरित्र-चित्रणके साथ मिथ्यात्वकी निन्दा, सम्यक्त्व की महिमा, पुण्य-पापके फल, जीवादि तत्त्वोंका विवेचन, बारह तप, बारह भावना आदिका यथास्थान विस्तारके साथ वर्णन किया है। आ. जिनसेनने भ. ऋषभदेवके जन्म समय जिस प्रकार विस्तारसे ताण्डवनृत्यका वर्णन किया है, ठीक उसी प्रकारसे और प्रायः उन्हीं शब्दोंमें भ. महाबीरके जन्म-समय भी किया है । भ. महावीरके ज्ञानकल्याणकको मनाने के लिए जाते समय इन्द्र के आदेशसे बलाहक देवने जम्बूद्वीप प्रमाण एक लाख योजन विस्तारवाला विमान बनाया। (देखो-अधिकार १४, श्लोक १३-१४ ) इस प्रकारके पालक विमानके बनाने और उसपर बैठकर आनेका वर्णन श्वे. हेमचन्द्र रचित त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरितके पर्व १, सर्ग २ श्लो. ३५३-३५६ में पाया जाता है। श्वे. शास्त्रके अनुसार सौधर्मेन्द्र उस विमानमें अपनी सभी सभाओंके देव-देवियों और परिजनोंके साथ बैठकर आता है। किन्तु सकलकोतिने इसका कुछ उल्लेख नहीं किया है। प्रत्युत कौन-सा इन्द्र किस वाहनपर बैठकर आता है, इसका विस्तत वर्णन चौदहवें अधिकारमें किया है। इस स्थलपर जन्मकल्याणके समान ही ऐरावत हाथीका विस्तृत वर्णन किया गया है, और उसीपर बैठकर सौधर्मेन्द्र समवसरण में आता है । सकलकीतिने भ. महावीरकी ६६ दिन तक दिव्यध्वनि प्रकट नहीं होनेका कोई उल्लेख नहीं किया है। प्रत्युत लिखा है कि केवलज्ञान प्राप्तिके पश्चात् समवशरणमें सभी लोगोंके यथास्थान बैठे रहनेपर और दिनके तीन पहर बीत जानेपर भी भगवान्की दिव्यध्वनि प्रकट नहीं हुई, तब इन्द्र चिन्तित हुआ और अवधिज्ञानसे गणधरके अभावको जानकर तथा वृद्ध ब्राह्मणका रूप बनाकर गौतमको लानेके लिए गया। ( देखो, अधिकार १५, श्लो. ७ आदि) अन्य चरित्रकारोंने तो यह लिखा है कि मानस्तम्भके देखते ही गौतमका मानभंग हो गया और उन्होंने भगवानके पास पहुँचते ही दीक्षा ले ली और भगवान्की दिव्यध्वनि प्रकट होने लगी। किन्तु इस स्थलपर सकलकीतिने लिखा है कि इन्द्र के द्वारा पूछे गये जिस काव्यका अर्थ गौतमको प्रतिभासित नहीं हुआ था, उसमें वर्णित तीन काल, छह द्रव्य आदिके विषयमें उन्होंने भगवान्से पूछा और भगवान्ने एक-एक प्रश्नका विस्तारसे उत्तर दिया, जिनसे सन्तुष्ट होकर गौतमने भगवान्की स्तुति कर अपने दोनों भाइयोंके साथ जिन दीक्षा धारण की। (देखो, अधिकार १८, श्लो. १४४-१५० आदि । गौतम-समागमका उल्लेख प्रस्तुत चरित्रके १५वें अधिकारमें है और उनके दीक्षाका उल्लेख १८वें अधिकारके अन्त में है। इस प्रकार १६,१७ और १८ इन तीन अधिकारोंमें गौतमके प्रश्नोंका ही उत्तर भगवानके द्वारा विस्तारसे दिये जानेका वर्णन सकलकीतिने दिया है। उनका यह वर्णन बहुत कुछ स्वाभाविक प्रतीत होता है, क्योंकि जब इन्द्रोक्त पद्यमें वर्णन किये गये सभी तत्त्वोंका उन्हें बोध हो गया, तभी उनका अज्ञान और मिथ्यात्व दूर हआ और तभी उन्होंने सम्यक्त्व और संयमको ग्रहण किया। सकलकीतिने इस स्थलपर बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है अद्याहमेव धन्योऽहो सफलं जन्म मेखिलम् । यतो मयातिपुण्येन प्राप्तो देवो जगद्गुरुः ॥१४४॥ अनर्घ्यस्तत्प्रणीतोऽयं मार्गो धर्मः सुखाकरः । नाशितं दृष्टिमोहान्धतमश्चास्य वचोंऽशुभिः ॥१४५।। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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