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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना इत्यादिचिन्तनात्प्राप्य परमानन्दमुल्बणम् । धर्मे धर्मफलादी च स वैदग्ध्यपुरःसरम् ।।१४६॥ मिथ्यात्वारातिसंतानं हन्तुं मोहादिशत्रुभिः । साधं विप्राग्रणीमुक्त्यै दीक्षामादातुमुद्ययौ ॥१४७॥ ततस्त्यक्त्वान्तरे सङ्गाद् दश बाह्ये चतुर्दश । त्रिशुद्धया परया भक्त्यार्हती मुद्रां जगन्नुताम् ॥१४८।। भ्रातभ्यां सह जग्राह तत्क्षणं च द्विजोत्तमः । शतपञ्चप्रमैश्छात्रैः प्रबुद्धस्तत्त्वमञ्जसा ।।१४९॥ इन श्लोकोंका भाव ऊपर दिया जा चुका है। श्वे. शास्त्रोंमें भी इसी प्रकारका वर्णन है कि गौतम और उनके भाइयोंका तथा अन्य साथियोंका जब जीवादि तत्त्व-विषयक अज्ञान भगवानके सयुक्तिक वचनोंसे दूर हो गया, तभी उन्होंने जिनदीक्षा धारणकर उनका शिष्यत्व स्वीकार किया । किन्तु तिलोयपण्णत्ती जैसे प्राचीन ग्रन्थमें कहा है कि इस अवसर्पिणीके चतुर्थ कालके अन्तिम भागमें तैंतीस वर्ष, आठ मास और पन्द्रह दिन शेष रहनेपर वर्ष के प्रथम मास श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके दिन अभिजित नक्षत्रके समय धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई । यथा एत्थावसप्पिणीए चउत्थकालस्स चरिमभागम्मि । तेत्तीस वास अडमासपण्णरसदिवससेसम्मि ।। वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए। अभिजीणक्खत्तम्मि य उप्पत्ती धम्म तित्थस्स ।। सावण बहुले पाडिवरुद्दमुहुत्ते सुहोदये रविणो। अभिजिस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं । ( अधिकार १, गा. ६८-७०) इसी बातको कुछ पाठभेदके साथ श्री वीरसेनाचार्य ने कसायपाहुडसुत्तकी जयधवला टीकामें इस प्रकार कहा है एदस्स भरहखेत्तस्स ओसप्पिणीए चउत्थे दुस्समसुसमकाले णवहि दिवसेहि छह मासेहि य अहिय तैंतीसवासावसेसे तित्थुप्पत्ती जादा । ( जयधवला, भा. १, पृ. ७४ ) अर्थात्-इस भरत क्षेत्रमें अवसर्पिणीकालके चौथे दुःषमा-सुषमा कालमें नौ दिन और छह माससे अधिक तेतीस वर्ष अवशेष रहनेपर धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई। वीरसेनाचार्यने अपने कथनकी पुष्टिमें धवला टीकामें तीन प्राचीन गाथाएं भी उद्धृत की हैं । जो इस प्रकार है इम्मिस्सेवसप्पिणीए चउत्थसमयस्स पच्छिमे भाए। चोत्तीसवाससेसे किंचि विसेसूणए संते ॥१॥ वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्हि सावणे बहुले । पादिवद पुन्वदिवसे तित्थुप्पत्ती हु अभिजिम्हि ॥२॥ सावणबहुलपडिवदे रुद्दमुहुत्ते सुहोदए रविणो । अभिजिस्स पढमजोए जत्थ जुगादी मुणेयब्वा ॥३॥ पाठक देखेंगे कि ये तीन गाथाएँ वे ही हैं, जो कुछ शब्द व्यत्ययसे तिलोयपण्णत्तीकी ऊपर दी गयी हैं। अपने उक्त कथनको और भी स्पष्ट करते हुए वीरसेन आगे शंका उठाकर उसका समाधान करते हुए लिखते हैं 'छासट्टि दिवसावणयणं केवलकालम्मि किमटुं कीरदे ? केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाणुप्पत्तीदो । दिव्वज्झणीए किमटुं तत्थापउत्ती? गणिदाभावादो। सोहम्मिदेण तक्खणे चैव गणिदो किण्ण ढोइदो? ण, For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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