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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना जयमित्त हल्लने भी अपभ्रंश भाषामें 'वड्डमाणचरिउ' रचा है, जो कवित्वकी दृष्टि से बहुत उत्तम है। इसमें जन्माभिषेकके समय मेरु-कम्पनकी घटनाका इस प्रकार वर्णन किया गया हैलइवि करि कलसु सोहम्म तियसाहिणा, पेक्खि जिनदेह संदेह किउ णियमणा। हिमगिरिदत्थ सरसरिसु गंभीरओ। गंगमुह पमुह सुपवाह बहुणीरओ ।। खिवमि किम कुंभु गयदंतु कहि लब्भई, मूर विंबुन्य आवरिउ णह अब्भई । सक्कु संकंतु तयणाणि संकप्पिओ, कणयगिरि सिहरु चरणंगलीचप्पिओ ।। टलिउ गिरिराउ खरहडिय सिलसंचया, पडिय अमरिंद थरहरिय सपवंचया । रडिय दक्करिण गुंजरिय पंचाणणा, तसिय किडि कुम्म उव्वसिय तरुकाणणा ।। भरिय सरि विवर झलहलिय जलणिहि सरा, हुवउ जग खोहु बहु मोक्खु मोहियधरा । ताम तिय सिंदु णिछंतु अप्पउ घणं, वीर जय वीर जंतु कयवंदणं ।। धता-जय जय जय वीर वीरिय णाण अणंतसूहा । महु खमहि भडारा तिहुअणसारा कवण परमाणु तुहा ॥१८ भावार्थ-जैसे ही सौधर्मेन्द्र कलशोंको हाथों में लेकरके अभिषेक करनेके लिए उद्यत हुआ, त्योंही उसके मनमें यह शंका उत्पन्न हुई कि भगवान् तो बिलकुल बालक हैं फिर इतने विशाल कलशोंके जलप्रवाहको मस्तक पर कैसे सह सकेंगे? तभी तीन ज्ञानधारी भगवान्ने इन्द्रकी शंकाके समाधानार्थ अपने चरणकी एक अंगुलीसे सुमेरुको दवा दिया। उसे दबाते ही शिलाएँ गिरने लगीं, वनों में निर्द्वन्द्व बैठे गज चिग्घाड़ उठे, सिंह गर्जना करने लगे और सारे देवगण भयसे व्याकुल होकर इधर-उधर देखने लगे। सारा जगत् क्षोभित हो गया। तब इन्द्रको अपनी भूल ज्ञात हुई और अपनी निन्दा करता हुआ तथा भगवान्की जयजयकार करता हुआ क्षमा मांगने लगा-हे अनन्त ज्ञान, सुख और वीर्यके भण्डार, मुझे क्षमा करो, तुम्हारे बलका प्रमाण कौन जान सकता है ? जयमितहलने एक और भी नवीन बात कही है कि भगवान् केवलज्ञानके उत्पन्न होनेके पश्चात् इन्द्रभूति गौतमके समागम नहीं होने तक ६६ दिन दिव्यध्वनि नहीं खिरने पर भी भूतलपर विहार करते रहे। यथा णिग्गंथाइय समेउ भरंतह, केवलि किरणहो धर विरहतह। गय छासद्वि दिणंतर जामहि, अमराहिउ मणि चितइ तामहि ।। इम सामग्गि सयल जिणणाहहो, पंचमणाणुग्गम गयबाहहो । कि कारण ण उ वाणि पयासइ, जीवाइय तच्चाइ ण भासइ ।। (व्यावर भवन, प्रति पत्र ८३ B) भावार्थ-केवलज्ञान रूपी सूर्यको किरणोंके धारण कर लेने पर निर्गन मनि आदिके साथ भारतवर्ष में विहार करते हए छयासठ दिन बीत जानेपर भी जब भगवान की दिव्य वाणी प्रकट नहीं हुई, तब अमरेश्वर इन्द्रके मनमें चिन्ता हुई कि सकल सामग्रीके होनेपर भी क्या कारण है कि भगवान अपनी वाणीसे जीवादि तत्त्वोंको नहीं कह रहे हैं ? For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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