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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तदशोऽधिकारः वन्दे जगत्त्रयीनाथं केवल श्रीविभूषितम् । विश्वतत्त्वाय वक्तारं वीरेशं विश्वबान्धवम् ॥१॥ अथ ते सप्ततत्त्वा हि पुण्यपापद्वयान्विताः । पदार्था नव कथ्यन्ते सम्यक्त्वज्ञानहेतवः ॥२॥ ततो व्यासेन तीर्थेशः सर्ववित्पुण्यपापयोः । हेतून् फलानि मव्यानां संवेगायेत्युवाच सः ॥३॥ मिथ्यात्वपञ्चमिः करैः कषायैश्चाप्यसंयमैः । प्रमादैः सकलैनिन्धर्योगैः कौटिल्यकर्मभिः ॥४॥ भातरौद्रातिदुनैिर्दुलेश्याभिश्च दुर्धिया । शल्यदण्डत्रिकैमिथ्यागुरुदेवादिसेवनैः ॥५॥ धर्मादिकारणः पापदेशनै: पापिनां सदा । अन्यैर्वात्र दुराचारैर्जायते पापमूर्जितम् ॥६॥ परस्त्रीधनवस्त्रादिलम्पटं रागदूषितम् । क्रोधमोहाग्निसंतप्तं निर्विचारं च निर्दयम् ॥७॥ मिथ्यास्ववासितं पापशास्त्रचिन्तापरं मनः। सूते घोरं नृणां पापं विषयाकुलीकृतम् ॥८॥ परनिन्दापरं निन्द्यं स्वप्रशंसाकरं भुवि । असत्यदूषितं वाक्यं पापकर्मप्ररूपकम् ॥९॥ कुशास्त्राभ्याससंलीनं तपोधर्मादिदूषकम् । जिनसूत्रातिगं पुंसां तनोति पापसंचयम् ॥१०॥ क्रूरकर्मकरः क्रूरो वधबन्धविधायकः । दुर्धरो विक्रियापन्नो दानपूजादिवर्जितः ॥११॥ स्वेच्छाचरणशीलश्च तपोव्रतपराङ्मुखः । जनयेत्पापिनां कायोऽयं महच्छ्वभ्रकारणम् ॥१२॥ जिनेन्द्रजिनसिद्धान्तनिर्ग्रन्थधर्मधारिणाम् । निन्दनैधियां निन्द्यं महापापं प्रजायते ॥१३॥ त्रिलोकके नाथ, केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीसे विभूषित, समस्त तत्त्वोंके उपदेशक और विश्वके बन्धु ऐसे श्री वीरजिनेश की मैं वन्दना करता हूँ ॥११॥ अथानन्तर वीरनाथने बतलाया कि ये जीवादि सात तत्त्व ही पुण्य और पाप इनसे संयुक्त होनेपर नौ पदार्थ कहे जाते हैं। ये पदार्थ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके कारण हैं ।।२। तत्पश्चात् तीर्थश सर्वज्ञ वीरनाथने विस्तारसे पुण्य-पापके कारण और फल भव्य जीवोंके संवेगकी प्राप्तिके लिए इस प्रकारसे कहे ||३|| एकान्त विपरीत आदि पाँच प्रकारके मिथ्यात्वोंसे, क्रोधादि चार क्रूर कषायोंसे-षटकायिक जीवोंकी हिंसादि करने रूप असंयमोंसे, पन्द्रह प्रमादोंसे, सर्व निन्दनीय मन-वचन-कायरूप तीन योगोंसे, कुटिलकर्मोंसे, अति आतं, रौद्ररूप दुानोंसे, कृष्णादि अशुभ लेश्याओंसे, तीन शल्योंसे, तीन दण्डोंसे, कुगुरुकुदेवादिकी सेवा करनेसे, धर्मादिके कर्मोको रोकनेसे और पापोंके करनेका उपदेश देनेसे, तथा इसी प्रकारके अन्य दुराचारोंसे इस लोकमें पापियोंमें सदा उत्कृष्ट पापकर्मोंका संचय होता रहता है ॥४-६॥ परस्त्री, परधन और परवस्त्रादिमें लम्पट, रागसे दूषित, क्रोधमोहरूप अग्निसे सन्तप्त, विवेक-विचारसे रहित, निर्दय, मिथ्यात्ववासनासे वासित, और कुशास्त्रोंका चिन्तवन करनेवाला और विषयोंसे व्याकुलित मन मनुष्योंके घोर पाप उत्पन्न करता है ॥७-८|संसारमें पर-निन्दाकारक, स्वप्रशंसाकारक, निन्दनीय, असत्यसे दूषित, पाप-प्ररूपक, कुशास्त्राभ्यास-संलग्न, तपोधर्मादि-दूषक और जिनागम-बाह्य वचन पुरुषोंके महापापका संचय करते हैं ।।९-१०॥ क्रूर, क्रूरकर्म-कारक, वध-बन्ध-विधायक, दुःखद कार्य करनेवाला, विकारको प्राप्त, दान-पूजादिसे रहित, स्वेच्छाचरणशीलवाला, और व्रत-तपसे पराङ्मुख काय पापी जनोंके नरकके कारणभूत महापापको उपार्जन करता है ।।११-१२॥ जिनेन्द्र देव, जिन सिद्धान्त, और निग्रन्थ धर्मधारक गुरुजनोंकी निन्दा करनेसे दुर्बुद्धि लोगोंके निन्द्य महापाप For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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