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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७६ श्री वीरवर्धमानचरिते [ १७.१४ इत्यादि निन्द्यकर्माणि प्रचुराणि जिनाधिपः । महापापनिमित्तानि प्रादिशीतये नृणाम् ॥१४॥ क्रूरा भार्या जगन्निन्द्याः शत्रुतुल्याश्च बान्धवाः । सुता दुर्व्यसनोपेता स्वजनाः प्राणघातिनः ॥ १५ ॥ रोगक्लेशदरिद्राद्या वधबन्धादयोऽखिलाः । पापोदयेन दुःखाद्या उत्पद्यन्ते च पापिनाम् ॥१६॥ अन्धा मूका कुरूपाश्च विकलाङ्गाः सुखात्तिगाः । पङ्गवो बधिराः कुब्जकाः दासाः परधामनि ॥ १७॥ दीनाश्च दुर्धियो निन्द्याः क्रूराः पापपरायणाः । पापसूत्ररताः पापाद्भवन्ति प्राणिनो भुवि ॥ १८ ॥ सप्तैव नरकाण्येव विश्वदुःखाकराणि च । सर्वदुःखखनीस्तिर्यग्योनीः जन्म सुखातिगम् ||१९|| मातङ्गादिकुलं निन्यं म्लेच्छजातिं ह्यधावनिम् । लभन्ते पापिनोऽमुत्र दुःखं वाचामगोचरम् ॥२०॥ अधोमध्योर्ध्वलोकेषु यत्किंचिद्दुःखमुल्बणम् । केशदुर्गतिदुःखादि तत्सर्वं लभ्यते ह्यधात् ॥ २१ ॥ इति पापफलं ज्ञात्वा प्राणान्तेऽपि कदाचन । सुखार्थिभिर्न तत्कार्य कार्ये कोटिशते सति ॥२२॥ इत्थं पापफलादीन् स सभ्यानां भीतिहेतवे । व्याख्याय पुनरित्याह पुण्यस्य कारणादिकान् ॥२३॥ सर्वेभ्यः पापहेतुभ्योऽप्यन्यथाचरणैः शुभैः । सम्यग्दृग्ज्ञानचारित्रैरणुव्रत महात्रतैः ॥२४॥ कषायेन्द्रिययोगानां निग्रहैर्नियमादिभिः । सद्दान पूजनैश्चार्हद्गुरुभक्त्यादिसेवनैः ॥ ३५॥ शुभभावनया ध्यानाध्ययनादिसुकर्मभिः । धर्मोपदेशनैः पुण्यं लभ्यते परमं बुधैः ॥ २६ ॥ निर्वेदतत्परं धर्मवासितं पापदूरगम् । परचिन्तातिगं स्वात्मचिन्ताव्रतपरायणम् ॥१७॥ गुरुदेवापशास्त्राणां परीक्षाकरणक्षमम् । कृपाक्रान्तं मनः पुंसां जनयेत्पुण्यमूर्जितम् ॥ २८ ॥ परमेष्ठिजपस्तोत्रगुणख्यापनतत्परम् । स्वनिन्दाकरमन्येषां निन्दादूरं सुकोमलम् ॥ २९ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्पन्न होता है ||१३|| इत्यादि महापाप के निमित्तभूत प्रचुर निन्द्यकर्मोंका श्री जिनेश्वर देवने मनुष्योंको पापोंसे डरनेके लिए उपदेश दिया ||१४|| पापकर्मके उदयसे ही क्रूर स्त्री, लोकनिन्द्य और शत्रुतुल्य बान्धव, दुर्व्यसनोंसे युक्त पुत्र, प्राण घातक स्वजन, रोग-क्लेश-दरिद्रतादि तथा वध-बन्धनादि और सर्व प्रकार के दुःखादिक पापियोंके उत्पन्न होते हैं ।। १५-१६ ।। पापकर्म के उदयसे ही प्राणी संसार में अन्धे, गूँगे, कुरूप, विकलाङ्गी, सुख-रहित, पंगु, बहिरे, कुबड़े, परघरमें दास बनकर काम करनेवाले, दीन, दुर्बुद्धि, निन्द्य, क्रूर, पाप-परायण, और पापवर्धक शास्त्रोंमें निरत होते हैं ।।१७-१८ || समस्त दुःखोंके भंडार जो सात नरक हैं, सर्व दुःखों की खाि जो तिर्यग्योनि है, मातंग आदिके जो नीच कुल हैं और पापोंकी भूमि जो म्लेच्छजाति है, पापी जीव परभव में उनमें उत्पन्न होकर वचन -अगोचर दुःखोंको पाते हैं ।। १९-२० ।। अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्व लोकमें जितने कुछ भी महान् दुःख हैं, क्लेश, दुर्गति-गमन और शारीरिक मानसिक आदि दुःख हैं, वे सब पापसे ही प्राप्त होते हैं ||२१|| इस प्रकार से पाप कर्मके फलको जानकर सुखार्थीजनों को कोटिशत कर्मोंके होने पर और प्राणोंके वियोग होने पर भी पापके कार्य कभी भी नहीं करना चाहिए ||२२|| इस प्रकार समवशरण सभा में विद्य मान सभ्योंको पापोंसे डरनेके लिए पापके फलादिका व्याख्यान करके पुनः पुण्यके कारणादिको इस प्रकार कहा ||२३|| जितने भी सभी पापके कारण हैं, उनसे विपरीत आचरण करनेसे, शुभ कार्यों के करने से, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसे, अणुव्रत और महाव्रतोंके पालनेसे, कषाय, इन्द्रिय और मनोयोगादिके निग्रह करनेसे, नियमादि धारण करनेसे, उत्तम दान देनेसे, पूजन करनेसे, अर्हद्-भक्ति, गुरुभक्ति आदि करनेसे, शुभ भावना रखनेसे, ध्यान- अध्ययन आदि उत्तम कार्योंसे और धर्मोपदेश देनेसे पण्डित जन परम पुण्यको प्राप्त करते हैं || २४ - २६ || वैराग्यमें तत्पर, धर्मवासनासे वासित, पापसे दूर रहने वाला, पर- चिन्तासे विमुक्त, स्वात्मचिन्ता और व्रतमें परायण, देव गुरु-शास्त्रकी परीक्षा करनेमें समर्थ और करुणासे व्याप्त मन उत्कृष्ट पुण्यको उत्पन्न करता है ।। २७-२८ || पंचपरमेष्ठी के जाप स्तोत्र और गुण कथनमें तत्पर, For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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