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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ श्री-वीरवर्धमानचरिते [१६.१८३इति शिवगतिहेसून सप्ततत्त्वान् समग्रान् दृगवगमसुबीजान भव्यजीबैकयोग्यान् । निखिलगुणगणानां दृग्विशुद्धथै जिनेन्द्रो नृखगसुरपतीब्यो दिव्यवाण्या समाख्यत् ॥१८३॥ यो देवेन्द्रनरेन्द्रवन्दितपदो ध्यायन्ति यं योगिनो येनाता प्रभुता जगत्त्रयनुता यस्मै नमन्तीश्वराः । यस्मानास्त्यपरो गुरुस्त्रिभुवने यस्याप्यनन्ता गुणा यस्मिन् मुक्तिवधूः स्पृहां प्रकुर्वते तत्तद्विभूत्यै स्तुवे ॥१४४।। इति भट्टारकश्रीसकलकीतिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते गौतमपृच्छा सप्ततत्त्ववर्णनो नाम षोडशोऽधिकारः ॥१६।। इस प्रकार शिवगतिके कारणभूत सात तत्त्वोंको और भव्यजीवोंके योग्य दर्शन-ज्ञानके समग्र बीजोंको समस्त देव-मनुष्यादिगणोंकी दृग्विशुद्धिके लिए नरपति, खगपति और सुरपति से पूजित वीर जिनेन्द्रने दिव्यध्वनिसे कहा ॥१८॥ . - जिनके चरण देवेन्द्रों और नरेन्द्रोंसे वन्दित हैं, योगीजन जिनका ध्यान करते हैं, जिनके द्वारा त्रिलोक-नमस्कृत प्रभुता प्राप्त की गयी है, जिसके लिए संसारके समस्त अधीश्वर नमस्कार करते हैं, जिससे बड़ा कोई दूसरा त्रिभुवनमें गुरु नहीं है, जिसके गुण अनन्त हैं, और जिसके विषयमें मुक्ति वधू इच्छा करती है उन वीर प्रभुको उनकी विभूति पानेके लिए मैं उनकी स्तुति करता हूँ ॥१८४॥ इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकोति-विरचित श्रीवीरवर्धमानचरितमें गौतमके प्रश्न और उनके उत्तरमें सात तत्त्वोंका वर्णन करनेवाला यह सोलहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥१६॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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