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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६.१८२] षोडशोऽधिकारः १७३ सर्वास्तवनिरोधी यः क्रियते तेन योगिभिः । महावतादिसध्यानन्याख्यः स सुखाकरः ॥१६॥ संवरस्य मया पूर्व मुक्ता ये सबतादयः । परीषहजयाद्याश्च ज्ञेयास्त हेतवो बुधैः ॥१६९॥ सविपाकाविपाकाभ्यां द्विधा स्यान्निर्जराङ्गिनाम् । अविपाका मुनीद्राणां सविपाकाखिलात्मनाम् ॥१७॥ प्रागुक्तं निर्जरायाः प्रवर्णनं विस्तरेण च । पुनरुक्तादिदोषस्य भयात्करोमि नाधुना ॥१७१।। सर्वेषां कर्मणां योऽत्र क्षयहेतुः शिवार्थिनः । परिणामोऽतिशुद्धः स भावमोक्षो जिनमतः ।।१७२।। कृत्स्नेभ्यः कर्मजालेभ्यो विश्लेषो यश्चिदात्मनः । चरमध्यानयोगेन द्रव्यमोक्षः स कथ्यते ॥१७३॥ आपादमस्तकान्तं च यथा बन्धनकोटिभिः । बद्धस्य मोचनात्सौख्यं परमं जायतेऽन्वहम् ॥१७॥ तथा सर्वाङ्गबद्धस्य संख्यैः कर्मबन्धनैः । मोक्षात्सौख्यं निराबाधमनन्तं जायतेतराम् ।। १७५॥ ततोऽत्रात्मा व्रजेदूर्ध्वस्वभावेनातिनिर्मलः | अमूर्तो ज्ञानवान् मोक्षं कृत्स्नकर्माङ्गनाशनात् ।।१७६॥ तत्र भुङ्क्ते निराबाधं निरौपम्यं निजात्मजम् । विषयातीमत्यर्थ सर्वद्वन्द्वपरिच्युतम् ।।१७७॥ वृद्धि हासादिनिष्क्रान्तं शाश्वतं सुखमुल्बणम् । अनन्तं सकलोत्कृष्टं सिद्धो ज्ञानवपुर्महान् ।।१७८॥ अहमिन्द्रादयो देवा नराश्चक्रिखगादयः । भोगभूमिभवाश्चार्याः पशवो न्यन्तरादयः ॥१७९|| सर्वे यत्रुभुजुः सौख्यं परं भुञ्जन्ति चान्वहम् । भोक्ष्यन्ति विषयोत्पन्नं तत्सर्व पिण्डितं भुवि ॥१०॥ तस्मात् पिण्डीकृतात्सौख्यादनन्तं विषयातिगम् । एकस्मिन् समये भुङ्क्ते सिद्धः कर्माङ्गवर्जितः ॥१८१॥ मस्वेति धीधना मोक्षं साधयन्त्वप्रमादतः । अनन्तगुणशर्माप्त्यै तपोरनत्रयादिभिः ॥१८२॥ भावसंवर है ॥१६७। इसलिए योगी पुरुष महाव्रतादिके पालन और उत्तम ध्यानके द्वारा जो कर्मास्रवका निरोध करते हैं, वह सुखोंका आकर द्रव्यसंवर है ॥१६८॥ संवरके कारण जो व्रत समिति गुप्ति आदिक और परीषहजयादिक मैंने पहले कहे हैं, वे बुधजनोंके द्वारा जाननेके योग्य हैं ।।१६९|| कर्मों के आत्माके भीतरसे झड़नेको निर्जरा कहते हैं। वह जीवोंके सविपाक और अविपाकके भेदसे दो प्रकारकी होती है। इनमेंसे अविपाकनिर्जरा तपस्वी मुनियोंके होती है और सविपाकनिर्जरा सर्व प्राणियोंके होती है ॥१७०।। निर्जराका विस्तारसे वर्णन पहले कहा है, अतः पुनरुक्तादि दोषके भयसे अब नहीं करता हूँ ॥१७१।। शिवार्थी मनुष्यका जो अत्यन्त शुद्ध परिणाम सर्व कमौके क्षयका कारण होता है, वह जिनेन्द्रोंके द्वारा भावमोक्ष माना गया है ।।१७२।। अन्तिम शुक्लध्यानके योग द्वारा सर्व कर्मजालोंसे आत्माका विश्लेष ( सम्बन्धविच्छेद ) होता है, वह द्रव्यमोक्ष कहा जाता है ॥१७३।। जिस प्रकार पैरोंसे लगाकर मस्तक-पर्यन्त कोटि-कोटि बन्धनोंसे बँधे हुए जीवके बन्धनोंके विमोचनसे परम सुख होता है, उसी प्रकार असंख्य कर्म-बन्धनोंके द्वारा सर्वाङ्गमें बंधे हुए जीवके भी उनके विमोक्षसे निराबन्ध चरम सीमाको प्राप्त अनन्त सुख प्रति समय होता है ॥१७४-१७५।। जब यह आत्मा समस्त कर्म-बन्धनोंसे विमुक्त होता है, तभी वह अमूर्त ज्ञानवान और अति निर्मल आत्मा ऊर्ध्वगामी स्वभाव होनेसे ऊपरको जाता है, अर्थात् लोकान्तमें जाकर अवस्थित हो जाता है ॥१७६॥ वहाँपर वह महान ज्ञानशरीरी मुक्तजीव आत्मोत्पन्न, निराबाध, निरुपम, विषयातीत, सर्व-द्वन्द्व-विमुक्त, आत्यन्तिक, वृद्धि हानिसे रहित, शाश्वत और सर्वोत्कृष्ट सुखको भोगता है ।।१७७-१७८॥ इस संसारमें जो अहमिन्द्रादि देव हैं, चक्रवर्ती आदि मनुष्य हैं, भोगभूमिज आर्य और पशु हैं, तथा व्यन्तरादिक हैं, इन सबने जितना सुख आज तक भोगा है, वर्तमानमें प्रतिदिन भोग रहे हैं और भविष्यकालमें भोगेंगे, वह सब विषय-जनित सुख यदि एकत्र पिण्डित कर दिया जाये, तो उस पिण्डीकृत सुखसे अनन्त-गुणित विषयातीत सुखको कर्मशरीरसे रहित सिद्ध जीव एक समयमें भोगते हैं ॥१७९-२८१।। ऐसा जानकर बुद्धिमान लोग उस अनन्त गुणवाले सुखकी प्राप्ति के लिए तप और रत्नत्रयके द्वारा मोक्षकी प्रमाद-रहित होकर साधना करते हैं ॥१८२॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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