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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरित शच्या धृतं करयुगे नतमब्जभासा निन्ये सुरैरनुगतो नभसा सुरेन्द्रः । स्कन्धे निधाय शरदभ्रसमानमूर्ते रैरावतस्य मदगन्धहतालिपङ्क्तेः ॥ (सर्ग १७, श्लोक ७२-७३ ) ( २ ) जन्माभिषेकके समय श्वे. परम्परानुसार सुमेरुपर्वतके कम्पित होनेका उल्लेख असगने किया है। यथा तस्मिंस्तदा क्षुवति कल्पितशैलराजे घोणाप्रविष्टसलिलात्पृथुकेऽप्यजस्रम् । इन्द्रा जरत्तृणमिबैकपदे निपेतु र्वीर्य निसर्गजमनन्तमहो जिनानाम् ।। (सर्ग १७, श्लो. ८२) दि. परम्परामें पद्मचरितमें भी सुमेरुके कम्पित होनेका उल्लेख है, जो कि श्वे. विमलसूरिकृत प्राकृत 'पउमचरिउ'का अनुकरण प्रतीत होता है । पीछे अपभ्रंश चरितकारोंने भी इनका अनुसरण किया है। दि. परम्पराके अनुसार भ. महावीर अविवाहित ही रहे हैं, फिर भी रयधु कविने अपने 'महावीरचरिउ' में माता-पिताके द्वारा विवाहका प्रस्ताव भ. महावीरके सम्मुख उपस्थित कराया है और भगवान्के द्वारा बहुत उत्तम ढंगसे उसे अस्वीकार कराया है, जो कि बिलकुल स्वाभाविक है। अपने पुत्रको सर्वप्रकारसे सुयोग्य और वयस्क देखकर प्रत्येक माता-पिताको उसके विवाहको चिन्ता होती है । परन्तु सकलकीर्तिने इस अंशपर कुछ भी नहीं लिखा है । भ. महावीर जब दीक्षार्थ वनको जा रहे थे, तब उनके वियोगसे विह्वल हुई त्रिशला माताका पीछेपीछे जाते हुए जो उसके करुण विलापका चित्र खींचा है, वह एक बार पाठकके आँखोंमें भी आँसू लाये बिना नहीं रहेगा। विलाप करती हुई माता वनके भयानक कष्टोंका वर्णन कर महावीरको लौटानेके लिए जाती है, मगर, महत्तरजन उसे ही समझा-बुझाकर वापस राजभवनमें भेज देते हैं। श्रीधरने अपभ्रंश भाषामें रचित अपने 'वड्डमाणचरिउ' भ. महावीरका चरित दि. परम्परानुसार ही लिखा है, तो भी कुछ घटनाओंका उन्होंने विशिष्ट वर्णन किया है । जैसे त्रिपृष्ठनारायणके भवमें सिंहके उपद्रवसे पीड़ित प्रजा जब उनके पितासे जाकर कहती है, तब वे उसे मारनेको जानेके लिए उद्यत होते हैं । तब कुमार त्रिपृष्ठ उन्हें रोकते हुए कहते हैं जइ मह संतेवि असि वरु लेवि पसुणिग्गह कएण । अट्रिस करि कोउ वइरि विलोउ ता कि मइतणएण ॥ अर्थात्-यदि मेरे होते सन्ते भी आप खङ्ग लेकर एक पशुका निग्रह करने जाते हैं तो फिर मुझ पुत्रसे क्या लाभ ? ऐसा कहकर त्रिपृष्ठकुमार सिंहको मारनेके लिए स्वयं जंगलमें जाता है और विकराल सिंहको दहाड़ते हुए सम्मुख आता देखकर उसके खुले हुए मुखमें अपना वाम हाथ देकर दाहिने हाथसे उसके मुखको फाड़ देता है और सिंहका काम तमाम कर देता है। इस घटनाका वर्णन कविने इस प्रकार किया है हरिणा करेण णियमिवि थिरेण, णिमणेण पुणु तक्खणेण । दिढु इयर हत्थु संगरे समत्थु, वयणंतराले पेसिवि विकराले ॥ पीडियउ सीहु लोलंत जीहु, लोयणजुएण लोहियजुएण । दावग्गिजाल अविरलविशाल, थुवमंत भाइ कोवेण णाइ। पवियारुओण हरि मारिऊण, तहो लोयहिएहिं तणु णिसामएहिं ।। (व्यावर भवन, प्रतिपत्र ३५ B) सिंहके मारनेकी इस घटनाका वर्णन श्वे. ग्रन्थोंमें भी पाया जाता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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