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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मा प्रकाशकीय निवेदन जैन शास्त्र प्राकृत भाषा में हैं । प्रायः साधुसमाज ही इसे पढ़ता या पढ़ाता है। गृहस्थसमाज प्राकृत भाषा का जानकार न होने के कारण प्रायः शास्त्रों में प्रतिपादित जीवननिर्माण के महान् तत्त्वों के बोध से वञ्चित ही रहता है । अतः हमारे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि जैनागमों का हिन्दी भाषा में अनुवाद होना चाहिए । अनुवाद भी इतना सुन्दर, सरल एवं सरस हो कि हिन्दी का साधारण जानकार व्यक्ति भी उससे बोध प्राप्त कर सके । इस कार्य के लिये शास्त्रों के मर्मज्ञ किसी विद्वान मुनि के सहयोग की आवश्यकता थी । सौभाग्यवश हमें श्री वर्धमान स्थानकवासी श्रमणसंघ के प्राचार्य जैनधर्मदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्री आत्माराम जी महाराज का मधुर सहयोग प्राप्त हो गया। आचार्य श्री जी ने इस पुण्यमय आगमसेवाकार्य में सहयोग देने का हमें पूरा २ विश्वास दिलाया । बस फिर क्या था ? आचार्य श्री के आशीर्वाद से काम चालू कर दिया गया। ___ हम नहीं समझ पाते हैं कि आचार्य श्री जी महाराज के चरणों में किन शब्दों में अपनी कृतज्ञता प्रकट करें?, आचाये श्री जी ने हमारी समाज पर हिन्दी भापा में नया चिन्तन प्रदान करने का जो महान अनुग्रह किया है उस के लिए हम आचार्य श्री के सदा ऋणी रहेंगे। __ हम ने जो ऊपर अपने विचारों का प्रदर्शन किया है, उन्हें कार्यरूप में परिणत हुए लगभग १८ साल हो चुके हैं। उस समय हिन्दी का क्षेत्र व्यापक नहीं था किन्तु भारत के स्वतंत्र होने के अनन्तर आज तो हिन्दी भाषा ने राष्ट्रभाषा का उच्च स्थान प्राप्त कर लिया है। परिणामस्वरूप अब हिन्दी भाषा किसी प्रान्त या जाति की भापा न रह कर समूचे भारत की भाषा बन गई है। ऐसी दशा में हिन्दी का प्रचार एवं प्रसार व्यापक होना स्वाभाविक ही है । अब हिन्दी में साहित्य के सभी तत्त्व अपना उचित स्थान प्राप्त करते जा रहे हैं । हिन्दी किसी भी दृष्टि से अब अपूर्ण नहीं कही जा सकती । हिन्दी की इस परिपूर्णता से आज उसकी लोकप्रियता पहले की अपेक्षा दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अतः हिन्दी में प्रकाशित साहित्य ही आज अधिकतया लोकभोग्य हो सकता है, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। __जैन शास्त्रमाला कार्यालय को स्थापित हुए १८ वर्ष हो चुके हैं । यह कार्यालय आगमों के प्रकाशन में दिन प्रतिदिन उन्नति एवं प्रगति करता जा रहा है । यह हमारे लिए सन्तोप एवं हर्ष की बात है । शास्त्रमाला ने सर्वप्रथम श्री दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र का प्रकाशन कराया था। जैनसंसार ने उस का आशा से बढ़कर सम्मान करके हमें पर्याप्त प्रोत्साहित किया । परिणामस्वरूप शास्त्रमाला श्री अनुत्तरोपपातिकदशा, श्री उत्तराध्ययन सूत्र (तीन भाग) तथा श्री दशवैकालिक सूत्र के अनन्तर श्री विपाक सूत्र का प्रकाशन कराने में भी सफल हो सकी है । आर्थिक विपमता एवं असुविधा होने पर भी शास्त्रप्रकाशन करते रहना, जैन शास्त्रमाला कार्यालय का ही काम था । हर्प का स्थान है कि शास्त्रमाला अपने उद्देश्य की पूर्ति में आशातीत सफलता प्राप्त करती जा रही है। शास्त्रों के प्रकाशन का श्रेय हमारे शास्त्रमाला के प्रबन्धकों की अपेक्षा उन दानी महा For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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