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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org प्रथम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६६७ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से-वह । सुवाहू-सुबाहु । अणगारे-अनगार । समणस्सश्रमण । भगवओ-भगवान् । महावीरस्स-महावीर स्वामी के । तहारूवाणं-तथारूप । थेराणं-स्थविरों के। अंतिए-पास । सामाइयमाइयाई-सामायिक अादि । एक्कारस-एकादश । अंगाई-अंगों का । अहिज्जति-अध्ययन करता है । वहूहि-अनेक । चउत्थ०-व्रत, बेला श्रादि । तपोविहाणेहिं-नानाविध तपों के आचरण से । अप्पाणं-आत्मा को। भावेत्ता-भावित-वासित करके । बहूइं-अनेक । वासाई - वर्षों तक । सामरणपरियागं-श्रामण्यपर्याय अर्थात् साधुवृत्ति का । पाउणित्ता-पालन कर । मासियार -मासिक-एक मास की । संले हणाए -संलेखना (एक अनुष्ठानविशेष जिस में शारीरिक और मानसिक तप द्वारा कषायादि का नाश किया जाता है ) के द्वारा | अप्पाणं-अपने आप को । झूसित्ता-आराधित कर । सहि- साठ । भत्ताई-भक्तों-भोजनों का । अणसणाए -अनशन द्वारा । छेदित्ता-छेदन कर । आलोइयपडिक्कन्ते - आलोचितप्रतिकान्त अर्थात् 'आलोचना और प्रतिक्रमण को कर के । समाहिं-समाधि को । पत्त-प्राप्त हुआ। कालमासे-कालमास में । कालं किच्चा-काल कर के। सोहम्मे-सौधर्म । कप्पे-देवलोक में । देवत्ताए-देवरूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआ । से णं-वह । ततो-उस । देवलोकाउ-देवलोक से । आउक्खएणं-आयु के क्षय होने से । भवक्खएणंभव के क्षय होने से । ठिइक्खएणं-और स्थिति का क्षय होने से । अणंतरं-अन्तररहित । चयं-देवशरीर को। चइत्ता-छोड़ कर । माणुस्सं-मनुष्य के । विग्गह-शरीर को । लििहति-प्राप्त करेगा । लोभहित्ता-प्राप्त कर के, वहां । केवलं-निर्मल - शंका, आकांक्षा श्रादि दोषों से रहित । बोहि-सम्यक्त्व को । बुझिहिति-प्राप्त करेगा । बुझिहित्ता - प्राप्त करके । तहारूवाणं-तथारूप । थेराणं-स्थविरों के अंतिए-पास । मुंडे - मुण्डित होकर । जाव - यावत् अर्थात् साधुधर्म में । पव्वइस्सति-प्रव्रजित-। दीक्षित हो जाएगा । से णं-वह । तत्थ-वहां पर । बहूई-अनेक । वासाई - वर्षों तक । सामएणंसंयमव्रत को पाउणिहिति-पालन करेगा। आलोइयपडिक्कन्ते-आलोचना और प्रतिक्रमण कर । समाहि पत्त-समाधि को प्राप्त हुआ ।कालगते -काल करके । सणंकुमारे-सनत्कुमार नामक कप्पे-तीसरे देवलोक. में । देवत्तार -देवतारूप से । उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा । ततो-वहां से । माणुस्सं- मनुष्य भव प्राप्त करेगा, वहां से । महासुक्के-महाशुक्र नामक देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से च्यव कर । माणस्संमनुष्य भव में जन्मेगा, वहां से मर कर । श्राणए-अानत नामक नवम देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से । माणुस्तं - मनुष्यभव में जन्म लेगा, वहां से । श्रारणे-ारण नाम के एकादशवें देवलोक में उत्पन्न होगा, वहां से । माणुस्सं-मनुष्य भव में जन्मेगा और वहां से । सबसिद्धे-सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न होगा । से णं-वह । तता-वहां से । अणंतरं - व्यवधानरहित । उव्यत्तिा --निकल कर । महाविदेहेमहाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा । जाव-यावत् । अड्ढाई-अाढ्य कुल में । जहा-जैसे। दढपतिराणेदृढ़प्रतिज। सिन्झिहिति ५ - सिद्ध पद को प्राप्त करेगा, ५ । तं - सो। एवं-इस प्रकार । खलु-निश्चय ही। जंबू!-हे जम्बू ! । समणेणं-श्रमण । जाव-यावत् । संपत्तणं-संप्राप्त ने । सुहविवागाणं-सुखविपाक के । पढमस्त-प्रथम । अज्झयणस्त-अध्ययन का । अयम?-यह अर्थ । पराण-प्रतिपादन (१) श्रालोचना-शब्द प्रायश्चित्त के लिये अपने दोषों को गुरुओं को बतलाना-इस अर्थ का परिचायक है, और प्रमादवश शुभ योग से गिर कर अशुभ योग प्राप्त करने के अनन्तर फिर से शुभयोग को प्राप्त करने तथा साधु और श्रावक के प्रातः सायं करने के एक आवश्यक अनुष्ठानविशेष की प्रतिक्रमण संज्ञा है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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