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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६६८] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम अध्याय किया है । त्ति- इस प्रकार । बेमि-मैं कहता हूं । पढम-प्रथम । अझयणं-अध्ययन । समत्तसम्पूर्ण हुअा। मूलाथे-तदनन्तर वह सुबाहु अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी के 'तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि एकादश अंगों का अध्ययन करने लगा, तथा उपवास आदि अनेक प्रकार के तपों के अनुष्ठान से आत्मा को भावित करता हुआ, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपयोय का यथाविधि पालन कर के एक मास की संलेखना से अपने आप को आराधित कर २६ उपवासोंअन रानव्रतों के साथ अलोचना और प्रतिक्रमण करके आत्मशुद्धि द्वारा समाधि प्राप्त कर कालमास में काल करके सौधर्म नामक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ। __ तदनन्तर वह सुबाहुकुमार का जीव सौधर्म देवलोक से आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर देवशरीर को छोड़ कर व्यवधानरहित मनुष्यशरीर को प्राप्त करेगा ।वहां पर कांक्षा, आकांक्षा आदि दोषों से रहित सम्यक्त्व को प्राप्त कर तथारूप स्थविरों के पास मुडित हो यावत्-दीक्षित हो जाएगा, वहां पर अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधिस्थ हो मृत्युधर्म को प्राप्त कर सनत्कुमार नामक तीसरे लोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य भव को प्राप्त कर दीक्षित हो मृत्यु के पश्चात् ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य भव को धारण करके अनगारधर्म का आराधन कर शरीरान्त होने पर महाशुक्र नामक सातवें देवलोक में उत्पन्न होगा । वहां से च्यव कर मनुष्य भव में आकर दीक्षित हो, काल करके आनत नाम नवमें देवलोक में जन्मेगा। वहां की भवस्थिति को पूरी करके फिर मनुष्य भर को प्राप्त हो दीक्षात्रत का पालन करके मृत्यु के अनन्तर आरण नामक ग्यारहवें देवलोक में उत्पन्न होगा । तदनन्तर वहां प्ले च्यव कर पुन: मनुष्य भव. को प्राप्त करेगा और श्रमणधर्म का पालन करके मृत्यु के पश्चात् सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में (२६ वें देवलोक में) उत्पन्न होगा और वहां से च्यव कर सुबाहुकुमार का वह जीव व्यवधानरहित महाविदेह क्षेत्र में किसी धनिक कुल में उत्पन्न होगा। वहां दृढप्रतिज्ञ की भाँति चारित्र प्राप्त कर सिद्ध पद को ग्रहण करेगा । अर्थात् जन्म मरण से रहित होकर परम सुब को प्राप्त कर लेगा। आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! मोक्षसंप्रोप्त श्रमण भावान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है । ऐसा मैं कहता हूँ। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ।। टीका-सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास साधुधर्म ग्रहण कर लिया है, यह पहले बताया जा चुका है। उस के पहले के और इस समय के जीवन में बहुत परिवर्तन हो गया है । कुछ दिन पहले वह राजकुमार था । घर में नाना प्रकार के स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन किया करता था परन्तु आज वह अकिंचन है, सर्व प्रकार के राज्यवैभव से रहित है, रूखा सूखा भोजन करने वाला है वह भी पराये घरों से मांग कर । उस का शरीर इस समय राज्य वेषभूषा के स्थान में त्यागशील मुनिजनों की वेषभूषा से सुशोभित हो रहा है । जहां राग था, वहां त्याग है। जहां मोह था, वहां विराग है । इसी प्रकार खान पानादि का स्थान अब अधिकांश उपवास श्रादि तपश्चर्या को प्राप्त है । सागारता ने न अमारता का ग्राश्रय पान किया है। यही उस के जीवन का प्रधान परिवर्तन है । (१) तथारूप तथा स्थविर पद की व्याख्या पृष्ठ ९७ पर की जा चुकी है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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