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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [६२७ और मनुष्य श्रायु का बन्ध किया, तथा उस के घर में-१-सुवर्ण वृष्टि, २-पांच वर्गों के फूलों की वर्षा, ३-वस्त्रों का उत्क्षेप, ४-देवदु'दुभियों का आहत होना, ५-आकाश में अहोदान, अहोदान, ऐसी उद्घोषणा का होना -ये पांच दिव्य प्रकट हुए । हस्तिनापुरनगर के त्रिपथ यावत् सामान्य मार्गों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर आपस में एक दूसरे से कहते थे -हे देवानुप्रियो ! धन्य है सुमुख गाथापति यावत् धन्य है सुमुख गाथापति । तदनन्तर वह सुमुम्व गृहपति सैंकड़ों वर्षों की आयु भोग कर कालमास में काल कर के इसी हस्तिशीर्षक नगर में महाराज श्रदीनशत्रु की धारिणी देवी की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह धारिणी देवो अपनी शय्या पर किंचित सोई और किंचित् जागती हुई स्पप्न में सिंह को देखती है। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना यावत् उन्नत प्रासादों में विषयमोगों का यथेच्छ उपभोग करने लगा, टीका-शास्त्रों में भिक्षा तीन प्रकार की बतलाई गई है। पहली-सर्वसम्पत्करी. दसरी वृत्ति और तीसरी पौरुषघातिनी। जिन मुनियों ने सांसारिक व्यवहार का सर्वथा परित्याग कर दिया है, जो पांच महाव्रतों का सम्यकतया पालन करते हैं और जिन का हृदय करुणा से सदा श्रोतप्रोत रहता है, वे मुनि केवल संयमरक्षा के लिये जो भिक्षा लेते हैं, वह भिक्षा सर्वसम्पत्करी कहलाती है । यह भिक्षा लेने और देने वाले, दोनों के लिये हितसाधक और आत्मविकास की जानका होती है । इस के अतिरिक्त यह भिक्षा वयं साधक की श्रात्मा में, समाज में तथा राष्ट्र में सदाचार का प्रचण्ड तेज संचारित करने वाली होती है जो मनुष्य लूना, लंगड़ा या अंधा है, स्वयं कमा कर खाने में असमर्थ है, वह अपने जीवननिर्वाह के लिये जो भिक्षा मांगता है वह वृत्ति भिक्षा कहलाती है। जैसे दूसरे लोग कमा कर खाते हैं उसी तरह वह भी भिक्षा के द्वारा अपनी आजीविका चलाता है । तात्पर्य यह है कि यह भिक्षा ही उस की आजीविका है इस लिये यह भिक्षा वृत्ति के नाम से प्रसिद्ध है । जो मनुष्य हट्टा कट्टा और तन्दरुस्त है, वलवान् है, कमा कर खाने के योग्य है परन्तु कमाना न पड़े इस अभिप्राय से मांग कर खाता है, उस की भिक्षा पुरुषार्थ की घातिका होने से पौरुषवातिनी मानी जाती है। मुदत्त अनगार की भिक्षा पहली श्रेणी की है अर्थात् सर्वसम्पत्करी भिक्षा है । यह भिक्षा के श्रेणीविभाग से अनायास ही सिद्ध हो जाता है । इस के अतिरिक्त इस भिक्षा में भी अध्यवसाय की प्रधानता के अनुसार फल की तरतमता होती है । भिक्षा देने वाले गृहस्थ के जैसे प्रणाम होंगे उस के अनुसार ही फल निष्पन्न होता है । सुदत्त अनगार को घर में प्रवेश करते देख सुमुख गृहपति बड़ा प्रसन्न हुा । उस का मन सूर्यविकासी कमल की भाँति इष के मारे खिल उठा। वह अपने आसन पर से उठ कर, नंगे पांव सुदत्त मुनि के स्वागत के लिये सात अाठ कदम आगे गया और उस ने तीन बार श्रादक्षिण प्रदक्षिणा कर के मुनि को भक्तिभाव से वन्दन, नमस्कार किया। तदनन्तर श्री सुदत्त मुनि का उचित शब्दों में स्वागत करता हुआ बोला कि प्रभो ! मेरा अहोभाग्य है । आज मेरा घर, मेरा परिवार सभी कुछ पावन हो गया। आप की चरणरज से पुनीत हुआ सुमुख आज अपने आप की जितनी भी सराहना करे उतनी ही कम है । इस प्रकार कहते हुए उस ने श्री सुदत्त मुनि को भोजनशाला की अोर पधारने की प्रार्थना की और अपने हाथ से उन्हें निर्दोष आहार दे कर अपने आप को परम भाग्यशाली बनाने का स्तुत्य प्रयास किया । आहार देते समय उस के भाव इतने शुद्ध थे कि उन के प्रभाव से उस ने उसी समय मनुष्यभवसंबंधी आयु का पुण्य बन्ध कर लिया। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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