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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२६ ] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय आदि चतुर्विध अाहार का । पडिलाभेस्पामि त्ति दान दूंगा अथवा दान का लाभ प्राप्त करूंगा, इस विचार से । तुढे ३- प्रसन्नचित्त हुआ अर्थात् अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त होता हुआ । तते णं-तदनंतर । तस्स-उस । सुमुहस्त - सुमुख । गाहावइस्स-गाथापति के । तेणं - उस । दव्वसुद्धणं - शुद्ध द्रव्य से, तथा । तिविहेणं-त्रिविध । तिकरणसुद्रणं त्रिकरणशुद्धि से। सुदत्त - सुदत्त । अणगारे -- अनगार के । पडिलाभिते समाणे ..प्रतिलम्भित होने पर अर्थात् सुदत्त अनगार को विशुद्ध भावना द्वारा शुद्ध आहार के दान स अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुए सुमुख गाथापति ने । संसारे संसार को-जन्म मरण की परम्परा को परित्तीकते-बहुत कम कर दिया और । मणुस्साए-मनुष्य प्राय का-उत्तम मानव भव का। निबद्धे-बन्ध किया अर्थात् मनुष्य जन्म देने वाले पुण्यकर्मदलिकों को बांधा । य--और । से-उस के । गिहंसि -घर में । इमाई-ये। पंच -- पांच । दिव्वाई - दिव्य-देवकृत । पाउम्भूताई-प्रकट हुए । तंजहा - जैसेकि । १-वसुझग-वसु -सुवर्ण की धारा की। वुट्ठा-वृष्टि हुई । २-दसद्धवराणे-पांच वों के । कुसुमे-पुष्पों को। निवातिते - गिराया गया । ३-चेलुक्खेवे-वस्त्रों का उत्क्षेप । कतेकिया गया। ४-देवदुदुभीओ-देवदुन्दुभिये । पाहताओ - बजाई गई । ५-पागासंसि अंतरा वि यणं - और आकाश के मध्य में। अहोदाणं अहोदाणं य-अहोदान अहोदान, ऐसी । घुर्ट -उद्घोषण हुई। हथियाउरे-हस्तिनापुर में । सिंघाडग.-त्रिपथ । जाव-यावत् । पहेसु-सामान्य रास्ता में । बहुजणो-बहुत से लोग। अन्नमन्नस्ल -एक दूसरे को । एवं-इस प्रकार । आइक्खइ ४- कहते हैं, ४ । धन्ने णं-धन्य है । देवाणुप्पिया!-हे महानुभावो ! । सुमुहे-सुमुख । गाहावती-गाथापति जाव-यावत्। तं-वह । वह । धन्ने ५-धन्य है.५। से-वह। समडे-समुख । गाहावती-गाथापति । बहूई-बहुत । वाससताई-सैंकड़ों वर्षों की । आउयं-आयु की । पालेति पालित्ता-उपभोग करता है, उपभोग कर के । कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल कर के । इहेव-इसी । हत्थिसीसएहस्तिशीर्षक । णगरे-नगर में । अदीणसत्सु स्स-अदीनशत्रु । रगणो-राजा की । धारिणीए-धारिणी। देवीए-देवी की। कच्छिंसि-कुक्षि में-उदर में । पत्तत्ताए-पुत्ररूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआपुत्ररूप से गर्भ में पाया। तते णं-तदनन्तर । सा-वह । धारिणी-धारिणी। देवी-देवी । सपणिज्जसि-अपनी शय्या पर । सुत्तजागरा-कुछ सोई तथा कुछ जागती हुई, अर्थात् । श्रोहीरमाणी २-ईषत् निद्रा लेती हुई। तहेव-तथैव-उसी तरह। सीई-सिंह को । पासति-देखती है। सेसं-बाको सब । तं चेव-उसी भांति जानना । जाव-यावत् । उप्पिंपासादे -ऊपर प्रासादों में । विहरति-भोगों का उपभोग करता है। तं-अतः । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। गोयमा! -हे गौतम!। सुबाहुणा-सुबा हुकुमार ने । इमा-यह । एयारूवा-इस प्रकार की। मणस्सरिद्धि-मानवी समृद्धि । लद्धा ३-उपलब्ध की है। मूलाथे-तदनन्तर सुमुख गाथापति प्राते हुए सुरत्त अनगार को देखता है, देव कर अत्यन्त प्रसन्नचित्त से आसन पर से उठता है, उठ कर पादपीठ से उतरता है, उतर कर पादुका को त्याग कर एकशाटिक उत्तरासंग के द्वारा सुदत्त अनगार के स्वागत के लिये सात आठ कदम सामने जाता है, सामने जा कर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करता है, करके वन्दना नमस्कार करता है, वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर जहां पर भक्तगृह है-रसोई है, वहां आता है, आकर आज मैं अपने हाथ से विपुल अशन, पानादि के द्वारा सुदत्त अनगार को प्रतिलाभित करूगा अर्थात् सुपात्र में दान दूंगा, ऐसा विचार कर नितान्त प्रसन्न होता है। तदनन्तर उस सुमुख गृहपति ने उम शुद्ध द्रव्य तथा त्रिविध त्रिकरणशुद्धि से सुदत्त अनगार को प्रतिलम्भित करने पर संसार को संक्षिप्त किया (१) परीतीकृतः । परि समन्तात् इतः-गत: इति: परीत: । अपरीतः परीत: कृत इति परीतीकृतः, पराङ्मुखीकृतः प्रतिनिवर्तित इत्यर्थः । अल्पीकृत इति यावत् । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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