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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२८ श्रीविपासूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध - [प्रथम अध्याय तपस्विराज मुनि सुदत्त का सुमु व गृहपति के घर अकस्मात् पधारना भो किसी गंभीर आराय का सूचक है । सन्तसमागम किसी पुण्य से ही होता है । यह उक्ति आबालगोपाल प्रसिद्ध है और सर्वानुमोदित है । फिर एक तपोनिष्ठ संयमी एवं जितेन्द्रिय मुनिराज का समागम तो किसी पूर्वकृत महान् पुण्य को प्रकट करता है। श्री सुदत्त मुनि अनायास ही सुमुख गृहपति के घर आते हैं, इस का अर्थ है कि सुमुख का पूर्वोपाजित शुभ कर्म उन्हें -सुदत्तमुनि को ऐसा करने की प्रेरणा करता है । अथवा प्रभावशाली तपस्विराज मुनिजनों का चरण. न्यास वहीं पर होता है जहां पर पूर्वकृत शुभकर्म के अनुसार उपयुक्त समस्त सामग्री उपस्थित हो । वर्षा का जल किसी उपजाऊ भूमि में गिरे तभी लाभदायक होता है । बंजर भूमि में पड़ा हुआ वह फलप्रद नहीं होता । यही कारण है कि श्री सुदत्त मुनि सुमुख जैसी उपजाऊ भूमि में अनुग्रहरूप वर्षा बरसाने के लिये सजल मेघ के रूप में उस के घर में पधारे हैं। सच्चे दाता को दान का प्रसंग उपस्थित होने पर तीन पार हर्ष उत्पन्न होता है । १-आज मैं दान दंगा, आज मुझे बड़े सद्भाग्य से दान देने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। २-दान देते समय हर्षित होता है और ३-दान देने के पश्चात् सन्तोष और आनन्द का अनुभव करता है। साध ने इतना आहार लिया। जिस के मन में ऐसे भाव आते हैं, उसने दान का महत्त्व ही नहीं समझा, ऐसा समझना चाहिये । देय पदार्थ शुद्ध हो. उस में किसी प्रकार की त्रुटि न हो. दाता भी शुद्ध अर्थात निर्मल भावना से युक्त हो और दान लेने वाला भी परम तपस्वी एवं जितेन्द्रिय अनगार हो। दूसरे शब्दों में-देय वस्तु दाता और प्रतिग्रहीता-पात्र ये तीनों ही शुद्ध हो तो वह दान जन्म मरण के बन्धनों को तोड़ने वाला और संसार को संक्षिप्त करने-कम करने वाला होता है-ऐसा कहा जा सकता है । सुमुख गृहपति के यहां ये तीनों ही शुद्ध थे, इसलिये उस ने अलभ्य लाभ को संप्राप्त किया। वैदिकसम्प्रदाय में गंगा, यमुना और सरस्वती इन को पुण्यतीर्थ माना गया है। इन तीनों के संगम को पुण्य त्रिवेणी कहा है। इसी को दूसरे शब्दों में तीर्थराज कहा जाता है और उसे पुण्य का उत्पादक माना गया है । किनु जैन परम्परा में शुद्ध दाता, शद्ध देय वस्तु और शुद्ध पात्र ये तीन तीर्थ माने गये हैं। इन तीनों. के सम्मेलन से तीर्थराज बनता है । इस तीर्थराज की यात्रा करने वाला अपने जीवन का विकास करता हुआ दुर्गतियों में उपलब्ध होने वाले नानाविध दु:खों से छूट जाता है । इस के अतिरिक्त वह मनुष्यों तथा देवों का भी पूज्य बन जाता है । देवता लोग भी उस के चरणों के स्पर्श से अपने को कृतकृत्य समझते हैं । सुमुख गृहपति ने इसी पुण्य त्रिवेणी में स्नान करके फलस्वरूप संसार को कम कर दिया और अागामी भव के लिये मनुष्य की आयु का बन्ध किया । इस के अतिरिक्त उस के घर में जो मोहरों की वृष्टि, पांच वर्ण के पुष्पों की वर्षा, वस्त्रों की वर्षा दुन्दुभि का बजना तथा "अहोदान अहोदान" की घोषणा होना - ये पांच दिव्य प्रकट हए, यह विधिपुरस्सर किये गये सुपात्रदानरूर तीर्थ में स्नान करने का ही प्रत्यक्ष फल है। जैसा कि प्रथम भी कहा गया है कि प्रत्ये । कर्तव्य के पीछे करने वाले को जो अपनी भावना होती है, उसी के अनुसार कर्तव्य-कर्म के फन का निर्धारण होता है । मानव की भावना जितनी शद्ध और बलवती होगी, उतना ही उस का फल भी विशुद्ध और बलवान् होगा यह बात ऊपर के कथासन्दर्भ से स्पष्ट हो जाती है। जीवन के आन्तरिक विकास में देय वस्तु के परिमाण का कोई मूल्य नहीं होता अपितु भावना का मूल्य है : देय वस्तु समान होने पर भी भावना की तरतमता से उसके फल में विभेद हो जाता है। मानव जीवन के विकासक्षेत्र में भावना को जितना महत्त्व प्राप्त है, उतना, और किसी वस्तु को नहीं । भावना के प्रभाव से ही मनदेवी माता, भरत चक्रवर्ती, प्रसन्न चन्द्र राजर्षि और कपिलमुनि प्रभृति आत्माश्रो ने केवल ज्ञान प्राप्त कर For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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