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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२४] श्रोविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय की आज्ञा होने पर मैं मासक्षमण के पारणे के लिये हस्तिनापुर नगर में 'उच्च-धनी, नीच–निर्धन और मध्यम - सामान्य गृहों में भिक्षार्थ जाना चाहता हूं । सुधर्मा स्थविर के "-जैसे-तुम को सुख हो, वैसे करो, परन्तु विलम्ब मत करो-" ऐसा कहने पर वे सुदत्त अनगार श्री सुधर्मा विर के पास से चल कर कायिक तथा मानसिक चपलता से रहित अभ्रान्त और शान्तरूप से तथा स्वदेहप्रमाण दृष्टिपात कर के ईर्यासमति का पालन करते हुए जहां हस्तिनापुर नगर था वहां पहुंच जाते हैं, और नीच तथा मध्यम स्थिति के कुलों में – । -सुहम्मे थेरे आपुच्छति सुधर्मणः स्थविरानापृच्छति । अर्थात् सुदत्त मुनि सुधर्म स्थविर को पूछते हैं । इस पाठ के स्थान में यदि " - धम्मघोसे थेरे श्रापुच्छति-" यह पाठ होता तो बहुत अच्छा था। कारण कि प्रकृत में सुधर्मा स्थविर का कोई प्रसंग नहीं है कथासन्दर्भ के प्रारम्भ में भी सूत्रकार ने सुदत्त मुनि को धर्मघोष स्थविर का अन्तेवासी बतलाया है । अत: यहां पर “-सुहम्मे-" यह पाठ कुछ संगत नहीं जान पड़ता और यदि "-स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया- इस न्याय के अनुसार सूत्रगत पाठ पर विचार किया जाये तो सूत्रकार ने "सुवर्मा" यह "धमेवोष' का ही दूसरा नाम सूचित किया हुआ प्रतीत होता है। अर्थात् सुदत्त अनगार के गुरुदेव धर्मघोष और सुधर्मा इन दोनों नामों से विख्यात थे । इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने धर्मघोष के बदले "सुधम्मे-सुधर्मा" इस पद का उल्लेख किया है। इस पाठ के सम्बन्ध में वृत्तिकार श्री अभयदेवसरि "-सुहम्मे थेरे-" त्ति धर्मघोषस्थविरमित्यर्थः । धर्मशब्दसाम्यात शब्दद्वयस्याप्येकार्थत्वात् - इस प्रकार कहते हैं । तात्पय यह है कि "सुधर्मा और धर्मघोष' इन दोनों में धर्म शब्द समान हैं, उस समानता को लेकर ये दो शब्द एक हो अर्थ के परिचायक हैं। सुधर्मा शब्द से धर्मघोष और धर्मघोष से सुधर्मा का ग्रहण होता है। यहां पर उल्लेख किये गये"-सुहम्मे थेरे-" शब्द से जम्बूस्वामी के गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के ग्रहण की भूल तो कभी भी नहीं होनी चाहिये। उन का इन से कोई सम्बन्ध नहीं है । सुमुख गृह पति के घर में प्रवेश करने के अनन्तर क्या हुआ ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैंमूल-ते णं से सुमुहे गाहावती सुदत्तं अणगार एज्जमाणं पासति पासित्ता (१) संयमशील संसारत्यागी मुनि की दृष्टि में धनी और निर्धन, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शद्र सब बराबर हैं, पर यदि इन में आचारसम्पत्ति हो । साधु के लिये ऊंच और नीच का कोई भेदभाव नहीं होता। उच्च, नीच और मध्यमकुल में भिन्नार्थ साधु का भ्रमण करना शास्त्रसम्मत है। अतः उच्च कुल में गोचरी करना और नीच कुल में या सामान्य कुल में न करना साधुधर्म के विरुद्ध है । साधु प्राणिमात्र पर समभाव रखते हैं, किन्तु जो आचारहीन है तथा प्राचारहीनता के कारण लोक में अस्पृश्य था घृणित समझे जाते हैं, उन के यहां भिक्षार्थ जाना लोकाष्ट से निषिद्ध है । (२) छाया-तत: स सुमुखो गायापतिः सुदत्तमनगारमायान्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टः श्रासनादभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्य पादुके अवमुञ्चति अवमुच्य एकशाटिकमुत्त० सुदत्तमनगार सप्ताष्टपदानि प्रत्युद्गच्छति प्रत्युद्गत्य त्रिवारमादक्षिण० वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव भक्तगृह तत्रैवोपागच्छति; उपागत्य स्वहस्तेन विपुलेन अशनपान० ४ प्रतिलम्भिष्यामीति तुष्टः ३ । ततस्तेन सुमुखेन गाथापतिना तेन द्रव्य शुद्धेन ३ त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन सुदत्तेऽनगारे प्रतिलम्भिते सति संसारः परीतीकृत:, मनुष्यायुर्निबद्धम् । गृहे च तस्य इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-१-वसुधारा वृष्टा । २-दशार्द्धवर्णकुसुमं निपातितम् । ३-चेलोत्क्षेपः कृतः । ४-अाहता देवदुन्दुभयः । ५-अन्तरापि चाकाशे अहोदानमहोदानं घुष्टं च । हस्तिनापुरे शृंगाटक. यावत् पथेषु बहुजनोऽन्योऽन्यं एवमाख्याति ४-धन्यो For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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