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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [६२३ घोर ब्रह्मचर्य व्रत के धारक, उत्क्षिप्तशरीर-शरीरगत मम,व से सर्वथा रहित, संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यअनेक योजनप्रमाण वाले क्षेत्र में स्थित वस्तुओं को भस्म कर देने वाली तेजोलेश्या घोर तप से प्राप्त होने वाली लं धविशेष को अपने में संक्षिप्त -गुत किये हुए, चतुर्दश पूर्वी-१४ पूर्व के ज्ञाता तथा चतुर्ज्ञानोपगतमतिज्ञान, श्रतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान इन चार ज्ञानों को प्राप्त हो रहे थे। - अहापडिरुवं-का अथ है शास्त्रानुमोदित अनगार वृत्ति के अनुसार, और - उग्गह-अवग्रहम्का अवग्रह या आवासस्थान रहने की जगह - यह अर्थ होता है । तथा - उगिरिहत्ता-का- ग्रहण करके - यह अर्थ समझना चाहिए । तब इस का संकलित अर्थ यह हुआ कि धर्मघोष स्थविर अपने शिष्यपरिवार के साथ सहस्राम्रवन नामक उद्यान में शास्त्रविहित साधुवृति के अनुसार आवासस्थान को ग्रहण कर के वहां अवस्थित हुए। __ उराले जाव लेस्ले • यहां पठित - जाव-यात् पद से - घोरे घोरगुणे घोरज्वए घोरतवस्सी घोरबंभवेवासी उच्ठसीरे संखित्तविउलतेउ-इत्यादि पदों का ग्रहण करना चाहिये । घोर आदि पदों का अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद श्री. धर्मघोष जी महाराज के विशेषण हैं. जबकि प्रस्तुत में श्री सुदत्त मुनि के । नामगतभिन्नता के अतिरिक्त अथगत कोई भेद नहीं है -जहा गोयमसामी तहेव सुहम्मे थेरे आपुनति जाव अडमाणे -इस में पारणे के दिन पहले प्रहर से लेकर हस्तिनापुर में भिक्षार्थ जाने तक का सदत्त मुनि का जितना वृत्तान्त है, उसे ' गौतम स्वामी के गतवृत्तान्त की तरह जान लेने का सूत्रकार ने जो निर्देश किया है, तथा जाव-यावत् पद से गौतमस्वामी के समान किये गये सुदत्त मुनि के प्राचार के वर्णक पाठ को जो संसूचित किया है, वह निम्नोक्त है- .. -सुहम्मे थेरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सुहम्म थेरं वंदइ नमसइ, बन्दुित्ता नमसित्ता एवं वयालो -इच्छामि णं भते! नुब्भेहिं अब्भणुएणाते समाणे मासक्खमणपारणगंसि हत्थिरणारे णगरे उच्चनीयमज्झिमघरसमुदाणस्त भिक वायरियाए अडित्तर ! अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह, तर णं सुदत्ते अणगारे सुहम्मेणं थेरेणं अभणुएगाते समाणे सुहम्मस्स थेरस्स अंतियातो पडिनिक्खमति पडिनिक्वमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगतरपलोयणाते दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे जेणेव होत्यणाउरे णगरे तेणेव उवागच्छद, हथियाउरे जयरे उच्चनीयमज्झिमकुलाई । इन पदों का अर्थ निम्नोक्त है - तपस्विराज श्री सुदत्त अनगार मासक्षमण के पारणे के दिन प्रथम पहर में स्वाध्याय करते, दूसरे में ध्यान करते, तीसरे पहर में कायिक और मानसिक चालता से रहित हो कर मुखस्त्रिका की, भाजन एवं वस्त्रों को प्रतिले वता करते, तदनन्तर पात्रों को झाला में रख कर ओर झोलो को ग्रहण कर सुधर्मा स्थावर के चरणों में उपस्थित हो कर वन्दना तया नमस्कार करने के अनतर निवेदन करते हैं कि हे भगवन् ! श्राप (१) गौतम स्वामी का वर्णन पृष्ठ १२३ पर किया जा चुका है । पारणे के लिये जिस विधि से वे गये थे उसी विधि का समस्त अनुसरण सुदत्त मु ने करते हैं । अन्तर मात्र इतना है कि गौतम स्वामी भिक्षा के लिये वाणिजग्राम नगर में जाने से पहले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछते हैं, जबकि सदत्त मुनि हस्तिनापुर में भिक्षार्थ जाने के लिये धर्मघोष या सुधर्मा स्थविर से आज्ञा मांगते हैं । नगरादि की नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है । 1515 For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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