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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन हिन्दीभाषाटीकासहित (५३) मैथुनसंसर्ग अर्थात् दूसरे की स्त्री के साथ मैथुन का सेवन करना तथा जो महान् तीन कषाय-क्रोध,मान, माया और लोभ, इन्द्रियों का प्रमाद-असत्प्रवृत्ति, पापप्रयोग-हिंसादि पापों में प्रवृत्ति,अशुभ अध्यवसायसंकल्प होते हैं, उन सब से संचित अशुभ कर्मों के अशुभ रस वाले कर्मफल कहे गये हैं। तथा नरकगति और तिर्यचगति में बहुत से और नाना प्रकार के सैंकड़ों कष्टों में पड़े हुए जीवों को मनुष्यगति को प्राप्त करके शेष पाप कर्मों के कारण जो अशुभ फल होते हैं, उन का स्वरूप निम्नोक्त है वध-यष्टिद्वारा ताडित करना,वृषणविनाश-नपुंसक बनाना,नासिका-नाक, कर्ण-कान, ओष्ठ-होंठ, अंगुष्ठ-अंगूठा, कर-हाथ, चरण-पांव, नख-नाखुन इन सब का छेदन-काटना, जिह्वा का छेदन, अंजनतपी हुई सलाई से आंखों में अञ्जन डालना अथवा क्षारतैलादि से देह की मालिश करना, कटाग्निदाहमनुष्य को कट-चटाई में लपेट कर आग लगाना, अथवा कट-घासविशेष में लपेट कर आग लगा देना, हाथी के पैरों के नीचे मसलना, कुल्हाड़े आदि से फाड़ना, वृक्षादि पर उलटा लटका कर बांधना, शूल, लता-बैत, लकुट- लकड़ी, यष्टि- लाठी, इन सब से शरीर का भजन करना, शरीर की अस्थि आदि का तोड़ना, तपे तथा कलकल शब्द करते हुए त्रपु-रांगा, सीसक- सिक्का और तैल से शरीर का अभिषेक करना, कुम्भीपाक-भाजनविशेष में पकाना, कम्पन अर्थात् शीतकाल में शीतल जल से छींटे दे कर शरीर को कम्पाना, स्थिरबन्धन- बहुत कस कर बांधना, वेध- भाले आदि से भेदन करना, वर्धकर्तन- चमड़ी का उखाड़ना, प्रतिभयकर- पल २ में भय देना, करप्रदीपनकपड़ों में लपेट तैल छिड़क कर मनुष्य के हाथों में आग लगाना इत्यादि अनुपम तथा दारुण दुःखों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिन विपाकसूत्र में यह भी बताया गया है कि, दुःखफलों को देने वाली पापकर्मरूपी बेल के कारण नाना प्रकार दुःखों की परम्परा से बन्धे हुए जीव कर्मफल भोगे बिना छूट नहीं सकते, प्रत्युत अच्छी तरह कमर बांध कर तप और धीरज के द्वारा ही उस का शोधन हो सकता है । इस के अतिरिक्त सुखविपाक के अध्ययनों में वर्णित पदार्थ निम्नोक्त हैं हितकारी, सुखकारी तथा कल्याणकारी तीव्र परिणाम वाले और संशय रहित मति वाले व्यक्ति शील- ब्रह्मचर्य अथवा समाधि, संयम-प्राणतिघात से निवृत्ति, नियम- अभिग्रहविशेष, गुण- मूलगुण तथा उत्तरगुण और तप- तपस्या करने वाले, सक्रियाएं करने वाले साधुओं को अनुकम्पाप्रधान चित्त के व्यापार तथा देने की त्रैकालिक मति अर्थात् दान दंगा वह विचार कर हर्षानुभूति करना, दान देते हुए प्रमोदानुभव करना तथा देने के अनन्तर हर्षानुभव करना, ऐसी त्रैकालिक बुद्धि से विशुद्ध तथा प्रयोगशुद्ध- लेने और देने वाले व्यक्ति के प्रयोग-व्यापार की अपेक्षा से शुद्ध भोजन को आदरभाव से देकर जिस प्रकार सम्यक्त्व का लाभ करते हैं और जिस प्रकार नर-मनुष्य, नरक, तिथंच और देव इन चारों गतियों में जीवों के गमन- परिभ्रमण के विपुल-विस्तीर्ण, परिवर्तनसंक्रमण से युक्त, अरति-संयम में उद्वेग, भय, विषाद, दीनता, शोक, मिथ्यात्व- मिथ्याविश्वास, इत्यादि शैलों- पर्वतों से व्याप्त, अज्ञानरूप अन्धकार से युक्त, विषयभोग, धन और अपने सम्बन्धी आदि में आसक्तिरूप कर्दम- कीचड़ से सुदुस्तर- जिस का पार करना बहुत कठिन है, जरा-बुढ़ापा, मरण- मृत्यु और योनि- जन्मरूप संक्षुभित- विलोडित, चक्रवाल- जलपरिमांडल्य (जल का चक्रा For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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