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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाकसूत्र [प्राकथन ............................................ रणधणधन्नविभवसमिद्धसारसमुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाणसोक्खाण सुहविवगोत्तमेसु अणुवरयपरंपराणुबद्धा असुभाणं सुभाणं चेव कम्माणं भासिया बहुविहा विवागा विवागसुयम्मि भगवया जिणवरेण सम्वेगकारणत्था अन्ने वि य एवमाइया बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आघविज्जति । विवागसुअस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, जाव संखेज्जाओ संगहणीअो । से णं अंगहयाए एक्कारसमे अंगे, वोसं अज्झयणा, वीसं उद्दसणकाला, वीसं समुद्दे सणकाला, संखेज्जाइपयसयसहस्साई पयग्गेणं प० संखेज्जाणि अक्खराणि, अणंता गमा, अणंता पज्जवा जाव एवं चरणकरण परूवण्या आप्पविजंति से तं विवागसुए। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है प्रश्न-विपाकश्रुत क्या है ? अर्थात् उस का स्वरूप क्या है ? उत्तर-विपाकश्रुत में सुकृत और दुष्कृत अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के फल कहे गये हैं। वह कर्मफल संक्षेप से दो प्रकार का कहा गया है। जैसेकि-दुःखविपाक-दुःखरूप कर्मफल और सुखविपाकसुखरूप कर्मफल । दुःखविपाक के दस अध्ययन हैं । इसी भाँति सुखविपाक के भी दस अध्ययन हैं। प्रश्न-दुःखविपाक में वर्णित दस अध्ययनों का स्वरूप क्या है ? उत्तर-दुःखविपाक के दस अध्ययनों में दुःखरूप विपाक-कर्मफल को भोगने वालों के नगर, उद्यान, व्यन्तरायतन- व्यन्तरदेवों के स्थानविशेष, वनखण्ड- भिन्न २ भाँति के वृक्षो वाले स्थान, राजा, मातापिता, समवसरण- भगवान का पधारना और बारह तरह की सभाओं का मिलना, धर्माचार्य- धर्मगुरु, धर्मकथा, नगरगमन- गौतम स्वामी का पारणे के लिये नगर में जाना, संसारप्रबन्धजन्म मरण का विस्तार और दुःखपरम्परा कही गई हैं । यही दुःखविपाक का स्वरूप है । प्रश्न-सुखविपाक क्या है ? और उस का स्वरूप क्या है ? उत्तर-सुखविपाक में सुखरूप कर्मफलों को भोगने वाले जीवों के नगर, उद्यान, चैत्यव्यन्तरायतन, वनखण्ड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक और परलोक संबन्धी ऋद्धिविशेष, भोगों का परित्याग, प्रव्रज्या-दीक्षा, श्रुतपरिग्रह-श्रुत का अध्ययन, तपउपधान-उपधान तप या तप का अनुष्ठान, पर्याय-दीक्षापर्याय, प्रतिमा-अभिग्रहविशेष,संलेखना-शरीर, कपाय आदि का शोषण अथवा अनशनव्रत से शरीर के परित्याग का अनुष्ठान,भक्तप्रत्याख्यान-अन्नजलादि का त्याग, पादपोपगमन- जैसे वृक्ष का टहना गिर जाता है और वह ज्यों का त्यों पड़ा रहता है. इसी भाँति जिस दशा में संथारा किया गया है, बिना कारण आमरणान्त उसी दशा में पड़े रहना, देवलोकगमन-देवलोक में जाना, सुकुल में- उत्तमकुल में उत्पत्ति, पुनर्वाधिलाभ-पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करना, अन्तक्रिया- जन्ममरण से मुक्त होना, ये सब तत्त्व वर्णित हुए हैं। दुःखविपाक में प्राणातिघात-हिंसा, अलीकवचन-असत्य वचन, चौर्यकर्म- चोरी, परदार For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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