SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 642
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५५२] श्री विपाक सूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध -- [प्रथम अध्याय उपलब्धि केवल स्वप्नमात्र होती है । सुखप्राप्ति के लिए दुःख के साधनों का त्याग उतना ही आवश्यक है जितना कि सुख के साधनों को अपनाना। दु:ख के साधनों का त्याग तभी संभव है जब कि दुःखजनक साधनों का विशिष्ट बोध हो । कष्ट के उत्पादक साधनों के भान बिना उन का त्याग भी संभव नहीं हो सकता. इसी प्रकार सुखमूलक साधनों को अपनाने के लिये उनका ज्ञान भी आवश्यक है। मनुष्य से ले कर छोटे से छोटे कीट, पतंग तक संसार का प्रत्येक प्राणी सुख की अभिलाषा करता है। सभी जीवों की सभी चेटाओं का यदि सूक्ष्मरूप से अवलोकन किया जाय तो प्रतीत होगा कि उन की प्रत्येक चेष्टा सुख की अभिलाषा से अोतप्रोत है । तात्पर्य यह है कि इस विशाल विश्व के प्रांगण में जीवों की जितनी भी लीलाए हैं वे सब सुखमूलक हैं । सुख की उपलब्धि के लिए जिस मार्ग के अनुसरण का उपदेश महापुरुषों ने दिया है. उस का दिग्दर्शन अनेक रूपों में कराया गया है । श्री विपाक सूत्र में इसी दृष्टि से दुःखविपाक और सुख विपाक ऐसे दो विभाग करके दुःख और सुख के साधनों का एक विशिष्ट पद्धति के द्वारा निर्देश करने का स्तुत्य प्रयास किया गया है। दुःखविपाक के दश अध्ययनों में दुःख और उसके साधनों का निर्देश करके साधक व्यक्ति को उन के त्याग की ओर प्रेरित करने का प्रयत्न किया गया है । इसी भान्ति उप के दूसरे विभाग - सुखविपाक में सुख और उनके साधनों का निर्देश करते हुए साधकों को उन के अपनाने की प्रेरणा की गई है। दोनों विभागों के अनुशीलन से हेयोपादयेरूप में साधक को अपने लिये मार्गनिश्चित करने की पूरी २ सुविधा प्राप्त हो सकती है। पूर्ववणित दुःखविपाक से साधक को हेय का ज्ञान होता है, और आगे वर्णन किये जाने वाले सुखविपाक से वह उपादेय वस्तु का बोध प्राप्त कर सकता है। पूर्व की भान्ति राजगृह नगर गुणशील चैत्य-उद्यान में अपने विनीत शिष्यवर्ग के साथ पधारे हुए आर्य सुधर्मा स्वामी से उन के विनयशील अन्तेवासी-शिष्य आर्य जम्बू स्वामी उन के मुखा श्रुत के दुःखविपाक के दश अध्ययनों का श्रवण करने के अनन्तर प्रतियोगी अर्थात् प्रतिपक्षी रूप से प्राप्त होने वाले उस के सुखविपाकमूलक अध्ययनों के श्रवण को जिज्ञासा से उनके चरणों में उपस्थित होकर प्रार्थना. रूप में इस प्रकार बोले भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत के अन्तर्गत दु:खविपाक के दश अध्ययनों का जो विषय वर्णन किया है, उस का तो श्रवण मैं ने श्राप श्री से कर लिया है, परन्तु विपाकश्रतान्तर्गत सुखविपाक के विषय में भगवान् ने जो कुछ प्रतिपादन किया है, वह मैंने नहीं सुना, अत. आप श्री यदि उसे भी सुनाने की कृपा करें तो अनुचर पर बहुत अनुग्रह होगा। तब अपने शिष्य की बढ़ी हुई जिज्ञासा को देख, आर्य सुधर्मा स्वामी ने फरमाया कि जम्बू ! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकत के सुखविपाक में दश अध्ययन वर्णन किये हैं, जिन का नामनिर्देश इस प्रकार है १- सुबाहु, २-भद्रनन्दी, ३- सुजात, ४ - सुवासव, ५-जिनदास, ६-धनमति, ७- महाबल, ८-भद्रनन्दी, ९ - महाचन्द्र और १० - वरदत्तः। . पूज्य श्री सुबाहुकुमार आदि महापुरुषों का सविस्तर वर्णन तो यथास्थान अग्रिम पृष्ठों पर किया जाएगा, परन्तु संक्षेप में इन महापुरुषों का यहां परिचय करा देना उचित प्रतीत होता है १-सुबाहुकुमार-- यह हस्तिशीर्ष नगर के स्वामी महाराज अदीनशत्रु और माता श्री धारिणी के पुत्र थे । ये ७२ कला के जानकार थे । पुष्पचूना जिन में प्रधान थी ऐसी ५०० उत्तमोत्तम राजकन्याओं के साथ इन का विवाह सम्पन्न हुआ था। प्रथम भगवान् महावीर स्वामी से श्रावक के बारह व्रत धारण किये थे । फिर उन्हीं For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy