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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४३८] श्रो विपाक सूत्र [ अष्टम अध्याय है । अात्मा शुद्ध विकसित और हल्की होने के बदले अधिक अशुद्ध और भारी होता चला जाता है, तथा उत्थान के बदले पतन की ओर ही अधिक प्रस्थान करने लगता है, और अन्त में वह अकाममृत्यु को उपलब्ध करता है । जो जीव अज्ञान के वशीभूत हो कर मृत्यु को प्राप्त करते हैं, उन की मृत्यु को अकाममृत्यु- बालमरण तथा जो जीव ज्ञानपूर्वक मृत्यु को प्राप्त होते हैं उन की यह ज्ञान गभित मृत्यु सकाममृत्यु - पण्डितमरण कहलाती है। मांस और मदिरा का सेवन करने वाले अकाममृत्यु को प्राप्त किया करते हैं जब कि अहिसा सत्यादि सदनुष्ठानों के सौरभ से अपने को सुरभित करने वाले पुण्यात्मा जितेन्द्रिय साधु पुरुष सकाममृत्यु को। इस के अतिरिक्त बालमृत्यु दुर्गतियों के प्राप्त कराने का कारण बनता है, तथा सकाममृत्यु से सद्गतियों की प्राप्ति होती है, इस से यह स्पष्ट हो जाता है मांस और मदिरा का सेवन कभी भी नहीं करना चाहिये ।। महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि जो पुरुष अपने लिये प्रात्यन्तिक शान्ति का लाभ करना चाहता है, उस को जगत में किसी भी प्राणी का मांस किसी भी निमित्त से नहीं खाना चाहिये। सम्पूर्ण रूप से अभयपद की प्राप्ति को मुक्ति कहते हैं । इस अभयपद की प्राप्ति उसी का होती है जो दूसरों को अभय देता है । परन्तु जो अपने उदरपोषण अथवा जिह्वास्वाद के लिये कठोर हृदय बन कर मृगादि जीवों की हिंसा करता है, या कराता है. प्राणियों को भय देने वाला तथा उन का अनिष्ट एवं हनन करने वाला है, वह मनुष्य अभय पद को कैसे प्राप्त कर सकता है, अर्थात् कभी नहीं। भगवद्गीता ने साधना में लगे हुए साधकों के लिये -सर्वभूतहिते रताः-और भक्त के लिये "-अद्वष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च-." ऐसा कह कर सर्व प्राणियों का हित और प्रणिमात्र के प्रति मैत्री और दया करने का विधान किया है । प्राणियों के हित और दया के बिना परमसाध्य निर्वाण पद की प्राप्ति तीन काल में भी नहीं हो सकती। अतः आत्मकल्याण के अभिलाषी मानव को किसी समय किसी प्रकार किञ्चित मात्र भी जीव को कष्ट कहीं पहुंचाना चाहिए । धर्म में सब से पहला स्थान भगवती अहिंसा को दिया गया है, शेष सदनुष्ठान तो उस के अंग है, परन्तु अहिंसा परम धर्म है। धर्म को मानने वाले सभी लोगों ने अहिंसा की बड़ी महिमा गाई है । वास्तव में देखा जाए तो बात यह है कि जो धर्म मनुष्य की वृत्तियों को त्याग, निवृत्ति और संयम के पथ का पथिक बनाता है वही यथार्थ धर्म है । इस के विपरीत जो धर्म इन बातों का उपदेश या इन की प्रेरणा नहीं करता वह धर्म ही नहीं है । अहिंसा धर्म में (१) हिंसे बाले मुसाबाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुजमाणे सुरं मासं, सेयमेयं त्ति मन्नइ ॥ (उत्तराध्ययन सू० अ० ५/९) अर्थात् अकाममृत्यु को प्राप्त करने वाला अज्ञानी जीव हिंसा करता है, झूठ बोलता है. छल कपट करता है, चुगली करता है तथा मांस एवं मदिरा का सेवन करता हुआ भी अपने इन कुत्सित आचरणों को श्रेष्ठ समझता है । इस वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मांस और मदिरा का सेवन करने वाले अज्ञानी जीव अकाममृत्यु को प्राप्त कर दुगर्तियों में धक्के खाते रहते हैं । अत: मांस और मदिरा का सेवन कभी नहीं करना चाहिए। (२) य इच्छेत् पुरुषोऽत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम् । स वर्जयेत मांसानि, प्राणिनामिह सर्वशः ।। (महाभारत अनु० ११५/५५) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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