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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टोका सहित । में उत्पन्न होना पड़ा। ___ प्रस्तुत सूत्र में श्रीद रसोइए के हिंसापरायण व्यापार का जो दिग्दर्शन कराया गया है और उस के फलस्वरूप उस का जो छठी नरक में जाने का उल्लेख किया गया है, उस पर से हिंसक प्रवृत्ति कितनी दूषित और आत्मा का पतन करने वाली होती है ।, यह भलीभांति सुनिश्चित हो जाता है। श्रीद ने अपनी करतम सावद्य प्रवृत्ति से इतने तीव्र पापकर्मों का बन्ध किया कि उसे अत्यन्त दोघकाल तक कल्पनातीत यातनाये भोगनी पड़ीं। अत: प्रा.मिक उत्कर्ष के अभिलाषियों को इस प्रकार की सावद्य प्रवत्ति से सदा और सर्वथा परामुख रह कर अपने देवदर्लभ मानव भव को सार्थक करने का प्रयत्न करते रहना चाहि इस के अतिरिक्त श्रीद रसोइए के जीवनवृत्तान्त का उल्लेख कर के सूत्रकार ने सुखाभिलाषी सहृदय व्यक्तियों के लिये प्राणिवध, मांसाहार तथा मदिरापान से विरत रहने की बलवती पवित्र प्रेरणा की है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार श्रीद रसोइया अनेकानेक जीवों के प्राणों का विनष्ट करने, मांसाहार तथा मदिरापान की जघन्य प्रवृत्तियों से उपाजित दष्कर्मों के कारण छठो नरक में गया. वहां उसे २२ सागरोपम के बड़े लम्बे काल के लिये अपनो हिंसामूलक करणो के भीषण फल का उपभोग करना पड़ा। ठीक इसी भांति जो व्यक्ति हिसापरायण जीवन बनाता हुआ मांसाहार और मदिरापान की दुर्गतिप्रद प्रवृत्तियों में अपने को लगाएगा वह भी श्रीद रसोइए. की तरह नरकों में दु:ख पाएगा और अधिकाधिक संसार में इलेगा- यह बतलाकर सूत्रकार ने प्राणिवध, मांसाहार तथा मदिरापान के त्याग का पाठकों को उत्तम उपदेश देने का अनुग्रह किया है। मांसाहार के दुष्परिणाम का वर्णन करने वाले शास्त्रों में अनेकानेक प्रवचन उपलब्ध होते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा है कि श्री मृगापुत्र अपने माता पिता से कहते हैं कि मृगादि जीवों के मांस से अपने शरीर को पुष्ट करने के जघन्य कर्म के फल को भोगने के लिये जब मैं नरकगति को प्राप्त हुआ तो वहां पर यमपुरुषों ने मुझ से कहा कि अय दुष्ट ! तुम्हें मृगादि जीवों के मांस से बहुत प्यार था। इसी लिये तू मांसखण्डों को भून २ कर खाया करता था और उस में आनन्द मनाता था। अच्छा, अब हम भी तुझ को उसी प्रकार से निष्पन्न मांस खिलाते हैं। ऐसा कह कर उन यमपुरुषों ने मेरे शरीर में से मांस के टुकड़े काट कर और उन को अग्नि के समान तपाकर मुझे बलात् अनेकों चार खिलाया । । मेरे रोने पीटने की ओर उन्हों ने तनिक भी ध्यान नहीं दिया । तब मुझे वहां इतना महान दुःख होता था कि जिस को स्मरण करते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं । तात्पर्य यह है मांसाहारी व्यक्तियों की नरकों में बड़ी दुर्दशा होती है । जिस प्रकार इस भव में वे दूसरे जीवों के छटपटाने एवं चिल्लाने पर जरा भी ध्यान नहीं करते हैं, ठीक उसी प्रकार वैसी ही गति उन की नरक में होती है । वहां पर भी उन के रुदन अाक्रन्दन एवं विलाप की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। आहार की शुद्धि अथवा अशुद्धि भक्ष्य और अभय पदार्थों के चुनाव पर निर्भर रहा करती है । जो भक्षण किये गये पदार्थ बुद्धि में सात्त्विकता पैदा करने वाले होते हैं, वे भक्ष्य और जिन के भक्षण से चित्त में तामसिकता या विकृति पैदा हो वे अभक्ष्य कहलाते हैं । आत्मा पर जिन पदार्थों के भक्षण का अधिक दोषपूर्ण प्रभाव पड़ता है, उन में प्रधानरूप से मांस और मदिरा ये दो पदार्थ माने गए हैं । मांस और और मदिरा के प्रयोग से प्रात्मा के ज्ञान और चारित्र रूप गणों पर विरोधी एवं दुर्गतिमूलक संस्कारों का बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है और उस की उत्क्रान्ति में अधिक से अधिक बाधा पड़ती (१) तुहं पियाई मंसाई, खण्डाई सोल्लगाणि य । खाविप्रोमि समसाइ', अग्गिवरणाई णेगसो॥ (उत्तराध्ययन सूत्र अ० १९/७०) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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