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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याग ] हिन्दी भाषा टीका सहित । (४३९ त्यागादि की पूर्वोक्त ये सभी बातें पाई जाती हैं । अतः मांसभक्षण करने वाले अहिंसाधर्म का हनन करते हैं । इस में कोई शका नहीं की जा सकती है । धर्म का हनन ही पाप है । पाप मानव को चतुर्गतिरूप संसार में लाता है और जन्म तथा मरण से जन्य अधिकाधिक दुःखों के प्रवाह से प्रवाहित करता रहता है । अत: पापों से बचने के लिये भी मांसाहार नहीं करना चाहिये ।। जिन मांसाहारी लोगों का यह कहना है कि हम पशुयों को न तो मारते हैं और न उन के मारने के लिये किसी को कहते हैं, फिर हम पापी कैसे ?, इस का उत्तर यह है कि कसाईखाने मांस खाने वालों के लिये ही बने हैं । यदि मांसाहारी लोग मांस न खायें तो कोई प्राणिवध क्यों करे ?, जहां कोई ग्राहक न हो तो वहां कोई दुकान नहीं खोला करता । दूसरी बात यह है कि केवल अपने हाथों किसी को मारने का नाम हिंसा नहीं है । प्रत्युत हिंसा मन वचन और काया के द्वारा करना कराना और अनुमोदन करना इस भांति नौ प्रकार की होती है । मांसाहारी का मन, वचन और शरीर मांपाहारी है फिर भला वह हिंसाजनक पाप से कैसे बच सकता है ? इस के अतिरिक्त शास्त्रों में-१-मांस के लिये सलाह - आज्ञा देने वाला । २- जीवों के अंग काटने वाला । ३-जीवों को मारने वाला । ४ मांस खरीदने वाला । ५-मांस बेचने वाला । ६ मांस पकाने वाला । ७-मांस परोसने वाला और ८ - मांस खाने वाला । इस भांति 'अाठ प्रकार के कसाई बतलाए गए हैं। इन में मांस खाने वाले को स्पष्टरूप से घातक माना है। महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि एक बार भीष्मपितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! "- वह मुझे खाता है, इस लिये मैं भी उस को खाऊगा-" यह मांस शब्द का मासत्व है-ऐसा समझो। तात्पर्य यह है कि मांस पद को मां और स इन दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । मां का अर्थ होता है-मुझ को और स वह – इस अर्थ का परिचायक है । अर्थात् मांस शब्द "-जिस को मैं खाता हू', एक दिन वह मुझे भी खायेगा-" इस अर्थ का बोध कराता है । अतः अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिये कभी भी मांस का सेवन नहीं करना चाहिए । "-जैसा खावे अन्न वेसावे मन-" यह अभियुक्तोक्ति इस बात में सबल प्रमाण है कि भोजन से ही मन बनता है । मनुष्य जिन पशु पक्षियों का मांस खाता है, उन्हीं पशु पक्षियों के गुण, आचरण आदि उस में उत्पन्न हो जाते हैं । उन की प्राकृति और प्रकृति वैसी ही क्रमश: बनती चली जाती है । दूसरे शब्दों में सात्विक भोजन करने से सतोगुणमयी प्रकृति बन जाती है । राजसी भोजन करने से रजोगुणमयी और जामस भोजन करने से तमोमयी प्रकृति बन जाती है। अतः खाने के विषय में शान्तचित्त से तथा स्वच्छ हृदय से विचार करते हुए मनुष्य का यह कर्तव्य बन जाता है कि वह मानव की प्रकृति को छोड़ कर पाशविक प्रकृति का आश्रयण न करे, अन्यथा उसे नरकों में भीषणातिभीषण दु :खों का उपभोग करना पड़ेगा । (१) अनुमन्ता विरासिता, निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चापहर्ता च, खादकश्चेति घातकाः ॥ (मनुस्मृति ५/५१) (२) मांस भक्षयते यमाद, भतयिष्ये तमप्यहम । एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्धस्व भारत ! ॥ (महाभारत ११६/३५) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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