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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सत्रा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित जाते है, जहां मृतक शरीरों की दुर्गन्ध से वायुमण्डल व्याप्त हो रहा हो । (१५) मनुष्य को यदि ऐसे स्थान में बहुत समय तक रखा जाए कि जहां मृतक शरीरों की दुर्गन्ध से वायुमण्डल परिपूर्ण हो रहा हो तो वह शीघ्र ही रोगी हो कर जीवन से हाथ धो बैठेगा, किन्तु मांसाहारी पशुओं की इस अवस्था में भी ऐसी स्थिति नहीं होती, प्रत्यु त वे ऐसे दुगन्धपूर्ण स्थानों में जितना काल चाहें ठहर सकते हैं, और उन के स्वास्थ्य को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होने पाती। ऐसी और अनेकानेक युक्तयां भी उपलब्ध हो सकती हैं परन्तु विस्तारभय से वे सभी यहां नहीं दी जा रही हैं । सारांश यह है कि इन सभी युक्तियों से यह स्पष्ट प्रमाणित एवं सिद्ध हो जाता है कि मांसाहार जहां शास्त्रीय दृष्टि से त्याज्य है, वहां वह मानव की प्रकृति के भी सर्वथा विपरीत है तथा मानव की शरीर - रचना भी उसे मांसाहार करने की आज्ञा नहीं देती। अतः सुखाभिलाषी प्राणी को मांसाहार की जघन्य प्रवृत्ति से सवथा दूर रहना चाहिये । अन्यथा धन्वन्तरि वैद्य की भांति नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ साथ जन्ममरण के प्रवाह में प्रवाहित होना पड़ेगा । प्रस्ततसूत्र पाठ में धन्वन्तरि वद्य को आयुर्वेद के आट अंगों के ज्ञाता बतलाते हुए पाठ अंगों के नामों का भी निर्देश कर दिया गया है। उन में से प्रत्येक की टीकानुसारिणी व्याख्या निम्नलिखित है (१) कौमारभृत्य-जिस में स्तन्यपायी बालकों के पालन पोषण का वर्णन हो, तथा जिस में दूध के दोषों के शोधन का और दूषित स्तन्य - दुग्ध से उत्पन्न होने वाली व्याधियों के शामक उपायों का उल्लेख हो, ऐसे शास्त्रविशेष की कौमारभृत्य संज्ञा होती है । कुमाराणां बालकानां भृतौ पोषणे साधु कौमारभृत्यम् , तद्धि शास्त्रं कुमारभरणस्य क्षीरस्य दोषाण संशोधनार्थ दुष्पस्तन्यनिमित्तान व्याधीनामुपशमनार्थ चेति । (२) शालाक्य-जिस में शलाका - सलाई से निष्पन्न होने वाले उपचार का वर्णन हो और जो धड़ से कार के कान, नाक, और मुख आदि में होने वाले रोगों को उपशान्त करने के काम में आये, ऐसा तंत्र-शास्त्र शालाक्य कहलाता है । शलाकायाः कर्म शालाक्यम् , तत्प्रतिपादक तंत्रमपि शालाक्यम् , तद्धि ऊर्ध्वजन्तुगतानां रोगाणां श्रवणवदनादिसंश्रितानामुपशमनार्थम् ।। (३) शाल्यहत्य-जिस शास्त्र में शल्योद्धार - 'शल्य के निकालने का वर्णन हो, अर्थात् उस के निकालने का प्रकार बतलाया गया हो. उसे शाल्यहत्य कहते हैं । शल्यस्य हत्या हननमुद्वार इत्यर्थः शल्यहत्या, तत्प्रतिपादक शास्त्रं शाल्यहत्यमिति । (४) काचिकित्सा-जिस में काय अर्थात् ज्वरादि रोगों से ग्रस्त शरीर की चिकित्सा - रोगप्रतिकार का विधान वर्णित हो, उस शास्त्र का नाम कायचिकित्सा है । इस में शरीर के मध्यभाग में होने वाले ज्वर तथा अतिसार -विरेचन प्रभृति रोगों का उपशान्त करना वर्णित होता है। कायस्य ज्वरादिरोगग्रस्त शरीरस्य चिकित्सा रोगप्रतिक्रिया यत्राभिधीयते तत् कायचिकित्सैव, तत्तत्रं हि म. भ्यांगसमाश्रितानां वरातिसारादीनां शमनार्थ चेति ।। (५) जांगुल-जिस में सर्प, कीट, मकड़ा, आदि विषले जन्तुओं के अष्टविध विष को उ. तारने - दूर करने तथा विविध प्रकार के विषसंयोगों के उपशान्त करने की विधि का वर्णन हो, उसे (१) शल्प-द्रव्य और भाव से दो प्रकार हाता है । द्रव्यरात्य-कांटा, भाला आदि पदार्थ हैं. तथा माया (छल कपट), निदान (नियाना) और मिथ्यादर्शन (मिथ्याविश्वास) ये तीनों भावराल्य कहलाते हैं । प्रकृत में शल्यशब्द के द्रव्य राल्य का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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