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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [३७३ उसे सर्वश्रेष्ठ और दुर्लभ बतलाया गया है । वास्तव में यह बात सत्य भी है। जब तक मानवता की प्राप्ति नहीं होती, तब तक यह जीवन वास्तविक जीवन नहीं बन पाता । जीवन के उत्थान का सब से बड़ा साधन मानवता ही है - यह किसी ने ठीक ही कहा है ।। '-आत्मवत् सर्वभूतेषु-" की भावना ही मानवता है । यदि मनुष्य को दूसरे के हित का भान नहीं तो वह मनुष्य किस तरह कहा जा सकता है ।. सारांश यह है कि मनुष्य वही कहला सकता है जो यह समझता है कि जिस तरह मैं सुख का अभिलाषी हूँ, प्रत्येक प्राणी मेरी तरह ही सुख की अभिलाषा कर रहा है । तथा जैसे मैं दुःख नहीं चाहता, उसी तरह दूसरा भी दुःख के नाम से भागता है । इसी प्रकार सुख देने वाला जैसे मुझे प्रिय होता है और दुःख देने वाला अप्रिय लगता है, ठीक इसी भान्ति दूसरे जीवों की भो यहो दशा है । उन्हें सुख देने वाला प्रिय और दुःख देने चाला अप्रिय लगता है । इसी लिये मेरा यह कतव्य हो जाता है कि मैं किसी के दुःख का कारण न बनू । यदि बनू तो दूसरों के सुख का ही कारण बनू । इस प्रकार के विचारों का अनुसरण करने वाला मानव प्राणी ही सच्चा मानव या मनुष्य हो सकता है और उसी में सच्ची मानवता या मनुष्यता का निवास रहता है । इस के विपरीत जो व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये दूसरों के प्राण तक लूटने में भी नहीं सकुवाता, वह मानव व्यक्ति मानव का आकार तो तो अवश्य धारण किये हुए है किन्तु उस में मानवता का अभाव है । वह मानव हो कर भी दानव है । वस्तुत: ऐसे मानव व्यक्ति ही संसार में नाना प्रकार के दुःखों के भाजन बनते है, और दुर्गतियों में धक्के खाते हैं । प्रस्तुत सातवें अध्ययन में एक ऐसे व्यक्ति के जीवन का वर्णन प्रस्तावित हुआ है, जो कि मानव के आकार में दानव था । मांसाहारी तथा मांसाहार जैसी हिंसा एवं अधर्म पूर्ण पापमय प्रवृत्तियों का उपदेष्टा बना हुआ था, तथा जिसे इन्हीं नृशंस प्रवृत्तियों के कारण नारकीय भीषण यातनायें सहन करने के साथ २ दुगतियों में भटकना पड़ा था । उस अध्ययन का आदिम सूत्र इस प्रकार हैमूल-' सत्तमस्स उक्खेवो। पदार्थ - सत्तमस्स- सप्तम अध्ययन का । उक्खेवो-उत्क्षेप- प्रस्तावना पूर्ववत् जानलेना चाहिये । मलार्थ - सनम अध्ययन के उत्क्षेप की भावना पहले अध्ययनों की भान्ति कर लेना चा िये । टीका-शास्त्रों के परिशीलन से यह पता चलता है कि प्रभवाणीरसिक श्री जम्बू स्वामी "- सोचना जाणइ कल्लाणं. सोच्चा जाणइ पावगं -” अर्थात् मनुष्य प्रभुवाणी को सुनकर कल्याणकारी कर्म को जान सकता है और सुन कर ही पापकारी मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर सकता है-" इस सिद्धान्त को खूब समझते थे । समझने के साथ २ उन्हों ने इस सिद्धांत को जीवन में भी उतार रखा था . इसी लिये अपना अधिक समय वे अपने परम पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पावन चरणों में बैठ कर प्रभवाणी के सुनने में व्यतीत किया करते थे । पाठकों को यह तो स्मरण ही है कि श्रार्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी की (१) छाया - सप्तमस्योत्क्षेपः । (२; सुनियां सेती जानिए, पुण्य पाप की बात : बिन सुनयां अन्धा जांके, दिन जैसी ही रात ॥१॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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