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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित [३७१ है, उस पर से उस की विकट परिस्थितियों का खासा अनुभव हो जाता है । मानव जीवन जहां अधिक से अधिक अन्धकारपूर्ण होता है वहां उस की नितान्त उज्ज्वलता भी विस्पष्ट हो जाती है । इस जीवनयात्रा में मानव प्राणो किस २ तरह की उच्चावच परिस्थितियों को प्राप्त करता है ? तथा सुयोग्य अवसर प्राप्त होने पर वह अपने साध्य तक पहुंचने में कैसे सफलता प्राप्त करता रहता है ? इस विषय का भी प्रस्तुत अध्ययन में अच्छा अनुगम दृष्टिगोचर होता है । राजकुमार नन्दिषेण के जीवन का अध्ययन करने से हेयोपादेय रूप से वस्ततत्त्व का त्याग और ग्रहण करने वाले विचारशील पुरुषों के लिये उस में से दो शिक्षाएं प्राप्त होती है। जैसे कि (१) प्राप्त हुए अधिकार का दुरुपयोग नहीं करना चाहिये । (२) किसी भी प्रकार के प्रलोभन में आकर अपने कर्तव्य से कभी परांमुख नहीं होना चाहिये। आज का मानव यदि सच्चे अर्थों में उत्तम तथा उत्तमोत्तम मानव बनना चाहता है तो उसे इन दोनों बातों को विशेषरूप से अपनाने का यत्न करना चाहिये । दुर्योधन चारकपाल -कारागृह के रक्षक – जेलर की भान्ति प्राप्त हुए अधिकार का दुरुपयोग करने वाला अधम व्यक्ति अपनी कर एवं निर्दय वृत्ति से मानवता के स्थान में दानवता का अनुसरण करता है । जिस का परिणाम प्रात्म-पतन के अतिरिक्त और कुछ नहीं । इसी प्रकार नन्दिषेण की भान्ति राज्य जैसे तछ सांसारिक प्रलोभन (जिस का कि पिता के बाद उसे ही अधिकार था) में आकर पितृघात जैसे अनथ करने का कभी स्वन में भी ध्यान नहीं करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाले अधमाधम दष्कृत्यों से सदा पृथक् रहने का यत्न करना तथा उत्तम एवं उत्तमोत्तम पद को उपलब्ध करना ही मानव जीवनका प्रधान लक्ष्य होना चाहिये । ।। षष्ठ अध्याय समाप्त । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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