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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३७०] श्री विपाक सूत्र - [ षष्ठ अध्याय पृथिवीकाया से निकलकर हस्तिनापुर नगर में मत्स्यरूप से उत्पन्न होगा, वहां मच्छीमारों के को प्राप्त होता हुआ फिर वहीं पर हस्तिनापुर नगर में एक श्रेष्ठिकूल में उत्पन्न होगी । asia सम्यत्व को प्राप्त करेगा, वहां से सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा और वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा । वहाँ पर चारित्र ग्रहण करेगा और उस का यथाविधि पालन कर उस के प्रभाव से सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा, और परम निर्वाण पद को प्राप्त कर सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त करेगा । निक्षेप की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir || छठा अध्ययन समाप्त || टीका- गौतम स्वामी द्वारा किए गए नन्दिषेण के आगामी जीवन सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में वीर प्रभु ने जो कुछ फरमाया उस का वर्णन मूलार्थ में कर दिया गया है । वर्णन सर्वथा स्पष्ट है । इस पर किसी प्रकार के विवेचन की आवश्यकता नहीं है । 1 पाठकों को स्मरण होगा कि प्रस्तुत अध्ययन के आरम्भ में श्री जम्बू 'स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी के चरणों में छठे अध्ययन को सुनने की इच्छा प्रकट की थी । जिस को पूर्ण करने के लिये श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रस्तुत छठे अध्ययन को सुनाना प्रारम्भ किया था । अध्ययन सुना लेने के अनन्तर श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू ! स्वामी से फ़रमाने लगे - जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के छठे अध्ययन का यह ( पूर्वोक ) अर्थ प्रतिपादन किया है । मैंने जो कुछ प्रभु वीर से सुना है, उसी के अनुसार तुम्हें सुनाया है, इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है । इन्हीं भावों को अभिव्यक्त करने के लिये सूत्रकार ने " - निक्खेवो - निक्षेप:- "यह पद प्रयुक्त किया है । निक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । परन्तु प्रस्तुत में निक्षेप शब्द से जो सूत्रांश अभिमत है, वह निम्नोक्त हैएवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं दुहवित्रागाणं छट्टस्स ज्यणस्स श्रयमट्ठे परागत 'त्ति बेमि--इन पदों का भावार्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है । - “ - पुढवीए० संसारो तहेव जाव पुढवी ९० " यहां का बिन्दु पृष्ठ ८९ पर पढ़े गये “ – उक्को ससागरोव मट्ठिएसु जाव उववज्जिहिति- इन पदों का परिचायक है । तथा संसारशब्द संसारभ्रमण का बोध कराता है। तहेव का अर्थ है - वैसे ही तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण वर्णित हुआ है, उसी प्रकार नन्दिषेण का भी समझ लेना चाहिये । और उसी संसारभ्रमण के संसूचक पाठ को जाव-यावत पद से अभिव्यक्त किया गया है । जाव - यावत् पद से विवक्षित पदों तथा - पुढवी ५० - के बिन्दु से अभिमत पाठ की सूचना पृष्ठ ३१२ पर दी जा चुकी है। " - सिहकुले० वोहिं० सोहम्मे० महाविदेहे ० - इत्यादि पदों से जो सूत्रकार को अभिमत है, वह चतुर्थ अध्ययन में पृष्ठ ३१२ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां शकटकुमार का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में नन्दिषेण का । विशेष अन्तर वाली कोई बात नहीं है । प्रस्तुत अध्ययन में नन्दिषेण के निर्देश से मानव जीवन का जो चित्र प्रदर्शन किया गया (१) 'वेमि' त्ति ब्रवीम्यहं भगवतः समीपेऽमुळे व्यतिकरं विदित्वेत्यर्थः (वृत्तिकारः) । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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