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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८६] श्रो विपाक सूत्र [चतुर्थ अध्याय उद्यानपाल के इन कर्णप्रिय मधुर शब्दों को सुन कर महाराज महाचन्द्र बड़े प्रसन्न हुए । तथा इस मंगल समाचार को सुनाने के उपलक्ष्य में उन्हों ने उद्यानपाल को भी उचित पारितो. षिक देकर प्रसन्न किया, तथा स्वयं वीर प्रभु के दर्शनार्थ उन की सेवा में उपस्थित होने के लिये बड़े उत्साह से तैयारी करने लगे । इधर श्रमण भगवात् महावीर स्वामी के देवरमण उद्यान में पधारने का समाचार सारे शहर में विद्यु त्प्रकाश की भान्ति एक दम फैल गया । नगर की जनता उन के दर्शनार्थ वेगवती नदी के प्रवाह की तरह उद्यान को ओर चल पड़ो , तया महाराज महाचन्द्र भी बड़ी सजवज के साथ भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान की ओर चल पड़े ओर उद्यान में पहुंच कर वीर प्रभु के जी भर कर निनिमेष दृष्टि से दर्शन करते हुए उनकी पयपासना का लाभ लेने लगे , तथा प्रभु-दशनों की प्यासी जनता ने भी प्रभु के यथारुचि दर्शन कर अपनी चिरंतन पिपासा को शान्त करने का पूरा २ सौभाग्य प्राप्त किया । अाज देवरमण उद्यान की शोभा भी कहे नहीं बनती । वीर प्रभु की कैवल्य विभूति से अनुप्राणित हुए उस में आज एक नये ही जीवन का संचार दिखाई देता है। उसका प्रत्येक वृक्ष, लता और पुष्प मानों हर्षातिरेक से प्रफुल्लित हो उठा है, तथा प्रत्येक अङ्ग प्रत्यङ्ग में सजीवता अथच सजगता आ गई है । दर्शकों को अांखें उसकी इस अपूर्व शोभाश्री को निर्निमेष दृष्टि से निहारती हुई भी नहीं थकतीं । अधिक क्या कहें, वीर प्रभु के आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त करने वाले इस देवरमणोद्यान की शोभाश्री को निहारने के लिये तो आज देवतागण भी स्वर्ग से वहां पधार रहे हैं। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उनके दर्शनार्थ देवरमण उद्यान में उपस्थित हुई जनता के समुचित स्थान पर बैठ जाने के बाद उसे धर्म का उपदेश दिया। उपदेश क्या था ? साक्षात् सुधा की वृष्टि थी, जो कि भवतापसन्तप्त हृदयों को शान्ति -प्रदान करने के लिये की गई थी । उपदेश समाप्त होने पर वीर प्रभु को भक्तिपूर्वक वन्दना तथा नमस्कार करके नागरिक और महाराज महाचन्द्र आदि सब अपने २ स्थानों को चले गये। तत्पश्चात् संयम और तप की सजीव मूर्ति श्री गौतम स्वामी भगवान् से आज्ञा लेकर पारणे के निमित्त भिक्षा के लिये साहजनी नगरी में गये । जब वे राजमार्ग में पहुँचे तो क्या देखते हैं ? कि हाथियों के झुड, घोड़ों के समूह और सैनिक पुरुषों के दल के दल वहां खड़े हैं। उन सैनिकों के मध्य में स्त्रीसहित एक पुरुष है, जिस के कर्ण, नासिका कटे हुये हैं, वह अवकोटकबन्धन से बंधा हुआ है , तथा राजपुरुष उन दोनों को अर्थात् स्त्री और पुरुष को कोड़ों से पीट रहें है, तथा यह उद्घोषणा कर रहे हैं कि इन दोनों को कष्ट देने वाले यहां के राजा अथवा कोई अधिकारी आदि नहीं है, किन्तु इन के अपने दुष्कर्म ही इन्हें यह कष्ट पहुंचा रहें हैं। राजकीय पुरुषों के द्वारा की गई उस स्त्री पुरुष की इस भयानक तथा दयनीय दशा को देख कर करुणा के सागर गौतम स्वामी का हृदय पसीज उठा और उनकी इस दुर्दशा से वे बहुत दुःखित भी हुए। भगवान् गौतम सोचने लगे कि यह ठीक है कि मैंने नरकों को नहीं देखा किन्तु फिर भी श्रुत शान के बल से जितना उनके सम्बन्ध में मुझे ज्ञान है उस से तो यह प्रतीत होता है कि यह बालक नरक के समान हो यातना -दुःख को प्राप्त कर रहा है। अहो ! यह कितनी कर्मजन्य बिडम्बना है ? इत्यादि विचारों से युक्त हुए वापिस देवरमण उद्यान में आये, श्राकर प्रभु को वन्दना की ओर राजमार्ग के दृश्य का सारा वृत्तान्त कह सुनाया तथा उस दृश्य के अवलोकन से अपने For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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