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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५० ] श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय यथारुचि उपभोग कर वह अभमसेन बाहिर आया और आकर श्राचमनादि द्वारा परम- - शुद्ध हो कर पांच सौ चोरों के साथ आर्द्र चर्म पर उसने आरोहरण किया और ठीक मध्याह्न के समय अस्त्र शस्त्रादि से सन्नद्ध-बद्ध होकर युद्धसम्बन्धी अन्य साधनों को साथ लेकर तथा पुरिमताल नगर के मध्य में से निकल कर शालाटवी की ओर प्रस्थान किया, तदनन्तर मार्ग में विषम एवं दुर्ग वृक्षवन में मोर्चे बना कर बैठ गया और दण्डनायक के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा । " - विसमदुग्गगहणं " इस पद की व्याख्या वृत्तिकार ने " विषमं - निम्नोन्नतं, - दुर्ग - दुष्प्रवेशं यद् गहनं वृक्षगह्वरम् इन शब्दों में की है इस पद में विषम और दुर्ग ये दो पद विशेषण ऊचे और नीचे भाव का बोधक विषम पद है और दुर्ग शब्द सके, ऐसे अर्थ का परिचायक है, एवं गहन पद वृक्षवन का बोध पाई जाए उसे वृक्षवन कहते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir · इन का भाव निम्नोक्त हैऔर गहन यह पद विशेष्य है । कठिनाई से जिस में प्रवेश किया जा कराता है । जिस में वृक्षों की बहुलता हैं " - महब्बलेणं जाव तेणेव " - यहां पठित जाव यावत् पद से - रराणा महया भडचडगरेणं दण्डे प्राण - गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया ! सालाडविं— से लेकर - जेणेव सालाडवी - इन पदों का ग्रहण समझना । इन का भावार्थ पृष्ठ २४५ पर दिया जा चुका है। - " तह सि जाव पडिसुर्णेति" - यहां पठित जाव यावत् पद से- श्राणाप विणणं वयणं - इन पदों का ग्रहण समझना । तह त्ति आणाए विसरणं पडिसुर्णेति- इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में - तह तिति नान्यथा, श्राज्ञया - भवदादेशेन करिष्याम इत्येवमभ्युपगमसूचनमित्यर्थः, विनयेन वचनं प्रतिभ्टरवन्ति अभ्युपगच्छन्ति इस प्रकार है। इन पदों का भाव है - तथेति - जैसा आप कहेंगे वैसा ही करेंगे, इस प्रकार विनय - पूर्वक उसके वचन को स्वीकार करते हैं । For Private And Personal 39 - "राहाते जाव पायच्छित्त' - यहां पठित जात्र यावत् पद से - कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल- - इन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर किया गया है । असणं ४- - यहां के ४ के अंक से -पाणं खाइमं साइमं इन पदों का और -सुरं च ५यहां ५ के अंक से - मधुं च मेरगं च जातिं च सीधुं च पसरणं च - इन पदों का, और:- आसा. एमाणे ४ - यहां के ४ के अंक से - विसापमाणे, परिभापमाणे, परिभुजेमाणे – इन पदों का और सन्नद्ध० जाव पहरणे - यहां के जाव - यावत् पद से - बद्धवम्मियकत्रए, उप्पीलिय सरास पट्टिए, पिण्द्धगेविज्जे, विमलवरबद्धचिंधपट्टे, गहियाउह - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । और- मगाइएहिं जाव खेणं - यहां के जाव यावत् पद से फल एहिं निक्किट्ठाहिं, सीहिं सागरहिं तोणेहिं सजीवेहिं धरमूर्हि - से लेकर - महया २ उक्किसीहनायवोलकलकल-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है 1 (१) इन के अर्थ के लिये देखो पृष्ठ ४८ का टिप्पण । (२) अर्थ के लिये देखो पृष्ठ १४४ । (३) के लिये देखो पृष्ठ १४५ । (४) अर्थ के लिये देखो पृष्ठ १२४, परन्तु इतना ध्यान रहे कि वहां ये द्वितीयान्त हैं और यहां पर प्रथमान्त हैं, तथापि अर्थगत कोई भिन्नता नहीं । (५) अर्थ के लिये देखो पृष्ठ २२२ ॥
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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