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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २४० श्री विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय योग्य एक बहुमूल्य भेंट लेकर पुरिमताल नगर की ओर प्रस्थित हए और महाबल नरेश के पास उपस्थित हो भेट अर्पण करने के पश्चात् अभग्नसेन के द्वारा किये गये अत्याचारों को सुनाकर उन के प्रतिकार की प्रार्थना करने लगे । राजा' वैद्य और गुरु के पास खाली हाथ कभी नहीं जाना चाहिये । तथा ज्योतिषी आदि के पास जाते समय तो इस नियम का विशेषरूप से पालन करना चाहिये, कारण यह है कि फल से ही फल की प्राप्ति होती है । तात्पर्य यह है कि यदि इनके पास सफल हाथ जाएगे तो वहां से भी सफल हो कर वापिस आवेंगे । इन्हीं परम्परागत लौकिक संस्कारों से प्रेरित हुए उन लोगों ने राजा को भेंट रूप में देने के लिए बहुमूल्य भेण्ट ले जाने की सर्वसम्मति से योजना की । . "महत्थं महग्धं महरिहं" - इन पदों की व्याख्या आचार्य अभयदेव सूरि के शब्दों में "-महत्थं-"त्ति महाप्रयाजनम् , “ महग्धं" ति महा(बहु)मूल्यम् , “महरिहं " ति महतो योग्यमिति-इस प्रकार है । महार्थ आदि ये सब विशेषण राजा को दी जाने वाली भेंट के हैं । पहला विरोषण यह बतला रहा है कि वह भेएट महान् प्रयोजन को सूचित करने वाली है । वह भेण्ट बहुमूल्य वाली है, यह भाव दूसरे विशेषण का है, तथा वह भेण्ट असाधारण-प्रतिष्ठित मनुष्यों के योग्य है अर्थात् साधारण व्यक्तियों को ऐसी भेण्ट नहीं दी जा सकती, इन भावों का परिचायक तीसरा विशेषण है । राजा के योग्य जो भेण्ट होती है उसे राजाई कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में अभग्नसेन के दुष्कृत्यों से पीडित एवं सन्तप्त जनपद में रहने वाले लोगों के द्वारा महाबल नरेश के पास अपना दुःख सुनाने के लिए, किये गये आयोजन आदि का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार लोगों ने राजा से क्या निवेदन किया उस का वर्णन करते हैं मूल-3एवं खलु सामी ! सालाड़वीए चोरपल्लीए अभग्गसेणे चोरसेणावती (१) रिक्तपाणिर्न पश्येत् , राजानं भिषजं गुरुम् । निमित्तझं विशेषेण, फलेन फलमादिशेत् ॥१॥ (२) गुरु के सामने रिक्तहाथ (खाली हाथ) न जाने की मान्यता ब्राह्मण संस्कृति में प्रचलित है, परन्तु श्रमण संस्कृति में एतद्विषयक विधान भिन्न रूप से पाया जाता है, जोकि निम्नोक्त है गुरुदेव से साक्षात्कार होने पर-(१) सचित्त द्रव्यों का त्याग, (२) अचित्त का अपरित्याग (३) वस्त्र से मुख को ढकना, (४) हाथ जोड़ लेना, (५) मानसिक वृत्तियों को एकाग्र करना इन मर्यादाओं का पालन करना गृहस्थ के लिये आवश्यक है। इतना ध्यान रहे कि यह पांच प्रकार का अभिगम (मर्यादा-विशेष) आध्यात्मिक गुरु के लिये निर्दिष्ट किया गया है । अध्यापक आदि लौकिक गुरु का इस मर्यादा से कोई सम्बन्ध नहीं है। ३) छाया- एवं खलु स्वामिन् ! शालाटव्याश्चोरपल्ल्याः अभमसेनश्चोरसेनापतिः अस्मान् बहुभिभिवातैश्च यावद् निर्धनान् कुर्वन् विहरति । तदिच्छामः स्वामिन् ! युष्माकं बाहुच्छायापरिगृहीता निर्भया निरुद्विमाः सुखसुखेन परिवस्तुम् , इति कृत्वा पादपतिता: प्राञ्जलिपुटा: महाबलं राजानमेनमर्थ विज्ञपयन्ति । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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