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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [२४१ अम्हे बहूहिं गामघातेहि य 'जाव निद्धणे करेमाणे विहरति । तं इच्छामो णं सामी ! तुब्भं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया णिविग्गा सुहंसुहेणं परिवमित्तए चि कट्ट, पादपडिया पंजलिउडा महब्बलं रायं एतमट्ठ विएणति । पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सामी!-हे स्वामिन् ! । सालाडवीएशालाटवी नामक । चोरपल्लीए-चोरपल्ली के। अभग्गसेणे-अभमसेन नामक । चोरसेणावतीचोरसेनापति । अम्हे-हम को । बहूहिं–अनेक । गामघातेहि य-ग्रामों के विनाश से । जाव-यावत् । निद्धणे-निर्धन । करमाणे-करता हुश्रा । विहरति-विहरण कर रहा है । तं-इस लिये । सामी!-हे स्वामिन् ! । इच्छामो गं-हम चाहते हैं कि । तुब्भं-आप की । बाहुच्छायापरिगहिया -भुजाओं की छाया से परिगृहीत हुए अर्थात् श्राप से संरिक्षत होते हुए । निब्भयानिर्भय । णिरुव्विग्गा-निरुद्विम - उद्वेगर हित हो कर हम । सुहसुहेणं-सुख-पूर्वक । परिवसित्तएबसें-निवास करें । ति कहु -इस प्रकार कह कर वे लोग । पायपडिया -पैरों में पड़े हुए तथा । पंजलिंउडा-दोनों हाथ जोड़े हुए । महब्बलं-महाबल । रायं-राजा को । एतम९-यह बात । विरणवैति-निवेदन करते हैं । मूलार्थ-हे स्वामिन् ! इस प्रकार निश्चय ही शालाटवी नामक चोरपल्ली का चोरसेनापति अभन्नसेन हमें अनेक ग्रामों के विनाश से यावत् निधन करता हुआ विहरण कर रहा है। परन्तु स्वामिनाथ ! हम चाहते हैं कि आप को भुनाओं की छाया से परिगृहीत हुए निर्भय और उद्वेग रहित होकर सुख-पूर्वक निवास करें । इस प्रकार कह कर पैरों में गिरे हुए और दोनों हाथ जोड़े हुए उन प्रान्तीय पुरुषों ने महाबल नरेश से अपनी बात कही। टोका-महाबल नरेश की सेवा में उपस्थित होकर उन प्रान्तीय मनुष्यों ने कहा कि महाराज! यह आप जानते ही हैं कि हमारे प्रान्त में एक बड़ी विशाल अटवो है, उस में एक चोरपल्ली है जोकि चोरों का केन्द्र है। उस में पांच सौ से भी अधिक चोर और डाकू रहते हैं । उन के पास लोगों को लटने के लिये तथा नगरों को नष्ट करने के लिये काफ़ी सामान है। उनके पास नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र हैं । उनसे वे सैनिकों की तरह सन्नद्ध हो कर इधर उधर घूमते रहते हैं । जहां भी किसी नागरिक को देखते हैं, उसे डरा धमका कर लूट लेते हैं । अगर कोई इन्कार करता है, तो उसे जान से ही मार डालते हैं। उन के सेनापति का नाम अभग्नसेन है, वह बड़े कर तथा उग्र स्वभाव का है। लोगों को संत्रस्त करना, उन की सम्पत्ति को लट लेना, मार्ग में आने जाने वाले पथिकों को पीड़ित करना एवं नगरों तथा ग्रामों के लोगों को डरा धमका कर उनसे राज्यसम्बन्धी कर-महसूल वसूल करना, और न देने पर घरों को जला देना, किसानों के पशु तथा अनाज आदि को चुरा और उठा ले जाना आदि अनेक प्रकार से जनता को पीड़ित करना, उस का इस समय प्रधान काम हो रहा है । आप की प्रजा उसके अत्याचारों से बहुत दुःखी हो रही है और सबका जीवन बड़ा संकटमय हो रहा है। भय के मारे कोई बाहिर भी नहीं निकल सकता । महाराज! आप हमारे स्वामी हैं, आप तक ही हमारी पुकार है। हम तो इतना ही चाहते हैं कि आप की सबल और शीतल छत्र -छाया के तले निर्भय होकर सुख और शान्ति-पूर्वक जीवन व्यतीत (१) जाव-यावत्-पद से विवक्षित पदों का वर्णन पृष्ठ १९९ पर किया गया है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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