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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२८] श्री विपाक सूत्र - [ तीसरा अध्याय (३) “ – परमसोमण स्सिया - परमसौमनस्थिता, सातिशयप्रमोदभावमापन्ना – ” अर्थात् अत्यन्त हर्षातिरेक को प्राप्त परमसौमनस्थिता कही जाती है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (४) हरिसवसविसप्पमाण हियया - हर्षवशविसर्पद्धृदया, हर्षवशाद् विसर्पद् विस्तारयायि हृदयं – मनो यस्याः सा हर्षवशविसर्पद्धृदया – ” अर्थात् हर्ष के कारण जिस का हृदय विस्तृत – विस्तार को प्राप्त हो गया है । तात्पर्य यह है कि हर्षाधिक्य से जिसका हृदय उछल रहा है, उस स्त्री को हर्ष - वश-विसर्पद्- हृदया कहते हैं । (५) धाराहयकलम्बुगं पिव समुस्ससियरोमकूवा - धाराहत कदम्बकमिव समुच्छ्वसितरोमकूपा, धाराभिः मेघवारिधाराभिः श्राहतं यत् कदम्बपुष्पं तदिव समुच्छ्वसितानि समुत्थितानि रोमाणि कूपेषु - रोमरंध्रेषु यस्याः सा - अर्थात् मेघ - जल की धाराओं से आहत कदम्ब - ( देवताड़ नामक वृक्ष के ) पुष्प के समान जो हर्ष के कारण रोमाञ्चित हो रही है । 66 - मित० जाव अण्णाहि - "यहां पठित जाव यावत् पद से - गाइ- नियग-सयण-संवन्धिपरियण - महिलाहिं- - इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । ज्ञाति आदि पदों की व्याख्या पृष्ठ १५० के टिप्पण में कर दी गई है। 1 “ - राहाया जाव विभूसिता - "यहां पठित जाव यावत् पद से " कयबलिकम्मा कयको - जयमंगलपायच्छत्ता, सव्वालंकार - " इन पदों का ग्रहण अभिमत है । कृतबलिकर्मा और कृतकौ - तुकमंगल प्रायश्चित्त इन दोनों पदों की व्याख्या पृष्ठ १७६ और १७७ पर कर दी गई है। सर्वालंकारविभूषित पद का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है । " - सन्नद्धबद्ध जाव हिंडेमाणी- यहां पठित जाव यावत् पद से " - वम्मियकवया, उप्पीलियस रासणपट्टिया - से ले कर -‍ - गहियाउहपहरणा भरिएहिं फलपहिं - " से लेकर "चोरपल्लीए सव्व समन्ता श्रोलोरमाणी- इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । सन्नद्धबद्धवम्मियकवया इत्यादि पदों की व्याख्या पृष्ठ १२४ तथा भरिएहिं इत्यादि पदों की व्याख्या पृष्ट २१९ पर कर दी गई है। प्रस्तुत सूत्र में “ – संपुरणदोहला, संमाणियदोहला, विसीयदोहला, वोच्छिणदोहला संपन्न दोहला - " ये पांच पद प्रयुक्त हुए हैं । यदि इन के प्रथां पर कुछ सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाये तो ये समानार्थ से ही जान पड़ते हैं, इन में अर्थ - भेद बहुत कम है, इन का उल्लेख दोहद की विशिष्ट पूर्ति के सूचनार्थ ही दिया हो, ऐसा अधिक सम्भव है । तथापि इन में जो अर्थगत सूक्ष्म भेद रहा हुआ है, उसे पदार्थ में दिखला दिया गया है। 1 अब सूत्रकार उत्पन्न बालक की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल - तते गं विजए चोरसेणावती तस्स दारगस्स महया इड्ढीसक्कारसमुदयगं (१) छाया - ततः विजयश्वोर सेनापतिस्तस्य दारकस्य महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन दशरात्रं स्थितिपतितं करोति । ततः स विजयश्वोरसेनापतिस्तस्य दारकस्यैकादशे दिवसे विपुलमशनम् ४ उपस्कारयति, मित्रज्ञाति० श्रामन्त्रयति, श्रामन्त्र्य यावत् तस्यैव मित्रज्ञाति० पुरत एवमवादीत् यस्मादस्माक - मस्मिन् दारके गर्भगते सति अयमेतद्रूपो दोहद० प्रादुभूतः । तस्माद् भवतु श्रस्माकं दारकोऽभमसेनो नाम्ना; ततः सोऽभग्नसेनः कुमारः पंचधात्री ० यावत् परिवर्द्धते । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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