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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [२२९ दसरत्तं ठितिवडियं करेति । तते णं से विजए चोरसेणावती तस्स दारगस्स एक्कारसमे दिवसे असणं ४ उवक्खडावेति, मित्तनाति० आमंतेति २ जाव तस्सेव मित्तनाति० पुरो एवं वयासी-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गमगयंसि समाणंसि इमे एयारूवे दोहले पाउन्भूते, तम्हा णं होउ, अम्हं दारए अभग्गसेणे णामेणं । तते णं से अभग्गसेणे कुमारे पंचधाई० जाव परिवड्ढांत । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । विजए-विजय नाम । चोरसेणावती - चोरसेनापति । तस्स-उस । दारगस्स-बालक का । महया-महान । इड्ढीसक्कारसमुदएणं-ऋद्धि - वस्त्र सुवर्णादि, सत्कार- सम्मान के समुदाय से । दसर-दस दिन तक । ठिइवडियं-स्थिति-पतितकुलक्रमागत उत्सव-विशेष । करेति-करता है । तते णं-तदनन्तर । से- वह । विजएविजय । चोरसेणावती-चोरसेनापति । तस्स दारगस्स-उस बालक के । एक्कारसमे-एकादशवें । दिवसे-दिन । विपुलं-महान् । असणं ४ - अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम को । उवक्खडावेति- तैयार कराता है, तथा । मित्तनाति०-मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि लोगों को । आमंतेति-आमंत्रित करता है । जाव' - यावत् । तस्सेव-उसी । मित्तनाति०-मित्र और ज्ञाति (१)-मित्तनाति० आमंतेति जाव तस्सेव - यहां के बिन्दु से-णियगसयणसंबन्धिपरियणं- इस पाठ का ग्रहण करना और जाव-यावत्-से "-तो पच्छा रहार कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगलाई पवराइं परिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्तनाइनियगसंबन्धिपरिजणेणं सद्धिं तं विउलं असणपाणखाइमसाइमं आसाएमाणे रिसाएमाणे परिभुजेमाणे परिभाएमाणे विहरति, जिमिअभुत्तु त्तरागए वि अणं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूए तं मित्तनाइनियगसयणसम्बन्धिपरिजणं विउलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्माणेति सक्कारिता सम्माणित्ता तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंवन्धिपरिजणस्स-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का अर्थ निम्नोक्त है उसके अनन्तर उस ने स्नान किया, बलिकर्म किया, दुष्ट स्वप्नों के फल को निष्फल करने के लिए प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक और अन्य मांगलिक कार्य किये, शुद्ध तथा सभा आदि में प्रवेश करने के योग्य, मंगल -- पवित्र एवं प्रधान --उत्तम वस्त्र धारण किये और मूल्य में अधिक और भार में हलके हों, ऐसे आभूषणों से शरीर को अलंकृत-विभूषित किया, तदनन्तर भोजन के समय पर भोजन-मण्डप (वह मण्डप जहां भोजन का प्रबन्ध किया गया था) में उपस्थित हो कर वह विजय उत्तम एवं सुखोत्पादक आसन पर बैठ गया और उन मित्रों२, ज्ञातिजनों, निजजनों सम्बन्धिजनों और परिजनों के साथ विपुल (पर्याप्त) अशनदाल रोटी आदि. पान -पानी आदि पेय पदार्थ, खादिम --श्राम सेव आदि और मिठाई आदि पदार्थ तथा स्वादिम-पान सुपारी श्रादि पदार्थ का प्रास्वादन (थोड़ा सा खाना और बहुत सा छोड़ देना, इक्ष खण्ड गन्नेकी भांति), विस्वादन (वहत खाना और थोड़ा छोड़ना. जैसे खजर श्रादि परिभोग (जिस में सर्वांश खाने के काम अाए, जैसे रोटी आदि) और परिभाजन (एक दूसरे को देना)करता हुमा विहरन करने लगा। भोजन करने के (१) वलिकर्म-शब्द की व्याख्या पृष्ठ १७६ पर कर दी गई है । (२) मित्र, ज्ञाति --आदि पदों के अर्थ के लिए देखो पृष्ठ-१५०। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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