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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तोसग अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [२२७ पूरी पूरी स्वतन्त्रता है, उस में किसी प्रकार का भी प्रतिबन्ध नहीं होगा। जिस २ वस्तु की तुम्हें आवश्यकता होगी वह तुम्हें समय पर बराबर मिलती रहेगी। इस सारे विचार–सन्दर्भ को सूत्रकार ने "अहासुहं देवाणुप्पिए !" -इस अकेले वाक्य में अोतप्रोत कर दिया है। इस प्रकार पति के सप्रेम तथा सादर आश्वासन को पाकर स्कन्दश्री की सारी मुझाई हुई आशालताएं सजीव सी हो उठीं । उसे पतिदेव की तरफ़ से आशा से कहीं अधिक अाश्वासन मिला। पति देव की स्वीकृति मिलते हो उसके सारे कष्ट दूर हो गये । वह एकदम हर्षातिरेक से पुलकित हो गई । बस, अब क्या देर थी । अपनी सहचरियों तथा अन्य सम्बन्धिजनों को बुला लिया। दोहद - पूर्ति के सारे साधन एकत्रित हो गये। सब से प्रथम उसने अपनी सहेलियों तथा अन्य सम्बान्धजनों की महिलाओं के साथ विविध प्रकार के भोजनों का उपभोग किया । सहभोज के अनन्तर सभी एकत्रित होकर किसी निश्चित स्थान में गई। सभी ने पुरुष –वेष से अपने आप को विभूषित करके सैनिकों की भान्ति अस्त्र शस्त्रादि से सुसज्जित किया और सैनिकों या शिकारी लोगों की तरह धनुष को चढ़ा कर नाना प्रकार के शब्द करती हुई वे शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों अोर भ्रमण करने लगीं । इस प्रकार अपने दोहद की यथेच्छ पूर्ति हो जाने पर स्कन्दश्री अपने गर्भ का यथाविधि बड़े आनन्द और उत्साह के साथ पालन पोषण करने लगी। तदनन्तर नौ मास पूरे हो जाने पर उसने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। इस कथा-सन्दर्भ में गर्भवती स्त्री के दोहद की पूर्ति कितनी आवश्यक तथा उसकी अपूर्ति से उसके शरीर तथा गर्भ पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ता है-इत्यादि बातों के परिचय के लिये पर्याप्त सामग्री मिल जाती है। "समाणी हट्ठ० वहूहिं"- यहां के बिन्दु से - तुट्ठचित्तमाणं दिया, पीइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाणहियया, धाराहयकलंबुगं पिव, समुस्ससिअरोमकूवा-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन का भावार्थ निम्नोक्त है - (१) हठ्ठतुचित्तमाणंदिया-हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता, हृष्ट हर्षितं हर्षयुक्त दोहदपूर्त्या - श्वासनेन अतीव प्रमुदितं, तुष्टं सन्तोषोपेतं, धन्याऽहं यन्मे पति: मदीयं दोहदं पूरयिष्यतीति कृतकृत्यम्, हृष्टं तुष्टं च यञ्चित्तं तेनानन्दिता, हृष्टतुष्टचित्चानंदिता-अर्थात् विजयसेन चोरसेनापति द्वारा दोहद की पूर्ति का आश्वासन मिलने से दृष्ट और "-मैं धन्य हूँ जो मेरे पतिदेव मेरे दोहद की पूर्ति करेंगे-" इस विचार से सन्तुष्ट चित्त के कारण वह स्कन्दश्री अत्यन्त आनन्दित हुई। अथवा-हर्ष को प्राप्त हृष्ट और सन्तोष को उपलब्ध तुष्ट-कृतकृत्य चित्त होने के कारण जो अानन्द को प्राप्त कर रही है, उसे हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता" कहते हैं । चित्त के हृष्ट एवं तुष्ट होने के कारण यथा-प्रसङ्ग भिन्न २ समझ लेने चाहिए। . अथवा-हष्टतुष्ट-अत्यन्त प्रमोद से युक्त चित्त होने के कारण जो आनन्दानुभव कर रही है, उसे "दृष्टतुष्टचित्तानन्दिता' कहते हैं। (२) पीइमणा-प्रीतिमनाः, प्रीतिस्तृप्तिः उत्तमवस्तुप्राप्तिरूपा सा मनसि यस्याः सा प्रीतमना.तृनचित्ता-अर्थात् जिस का मन अभिलषित उत्तम पदार्थों की प्राप्तिरूप तृप्ति को उपलब्ध कर रहा है, उस स्त्री को प्रीतमना कहते हैं। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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