SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२६] श्री वपाक सूत्र [ तीसरा अध्याय पुरुषवेष से युक्त हो तथा दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को शरीर पर धारण कर के यावत् भ्रमण करती हुई अपने दोहद की पूर्ति करती है। तदनन्तर वह स्कन्दश्री दोहद के सम्पूर्ण होने, समानित होने, विनीत होने, व्युच्छिन्नअनुबन्ध-(निरन्तर इच्छा-आसक्ति) रहित अथच सम्पन्न होने पर अपने उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है । तत्पश्चात् उस चोरसेनापत्नी स्कन्दश्री ने नौ मास के पूर्ण होने पर पुत्र को जन्म दिया। टीका-किसी दिन चोरसेनापति विजय जब घर में आया तो उसने अपनी भार्या स्कन्दश्री को किसी और ही रूप में देखा, वह अत्यन्त कृश हो रही है, उस का मुखकमल मुर्भा गया है, शरीर का रंग पीला पड़ गया है और चेहरा कान्तिशून्य हो गया है । तथा वह उसे चिन्ताग्रस्त मन से आतध्यान करती हुई दिखाई दी। स्कन्दश्री की इस अवस्था को देख कर विजय को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने बड़े अधीर मन से उसकी इस दशा का कारण पूछा और कहा कि प्रिये ! तुम्हारी ऐसी शोचनीय दशा क्यों हुई ? क्या किसी ने तुम्हें अनुचित वचन कहा है ? अथवा तुम किसी रोगविशेष से अभिभूत हो रही हो ! तुम्हारे मुखकमल की वह शोभा, न जाने कहां चली गई ? तुम्हारा रूपलावण्य सब लुप्त सा हो गया है । प्रिये ! कहो, ऐसा क्यों हुआ ? क्या कोई आन्तरिक कष्ट है ? पतिदेव के इस संभाषण से थोड़ी सी आश्वसित हुई स्कन्दश्री बोली, प्राणनाथ ! मुझे गर्भ धारण किये तीन मास हो चुके हैं, इस अवसर में मेरे हृदय में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि - वे मातायें ही धन्य तथा पुण्यशीलनी हैं कि जो अपनी सहचरियों के साथ यथारूचि सानन्द सहभोज करती हैं और पुरुष - वेष को धारण कर सैनिकों की भांति अस्त्र शस्त्रादि से सुजित हो नाना प्रकार के शब्द करती हुई आनन्द पूर्वक जंगलों में विचरती हैं, परन्तु मैं बड़ी हतभाग्य हूं, जिसका यह संकल्प पूरा नहीं हो पाया। प्राणनाथ ! यही विचार है जिस ने मुझे इस दशा को प्राप्त कराया । खाना मेरा छूट गया, पीना मेरा नहीं रहा, हंसने को दिल नहीं करता, बोलने को जी नहीं चाहता, न रात को नींद है, न दिन को शान्ति । सारांश यह है कि इन्हीं विचारों में अोतप्रोत हुई मैं आर्तध्यान में समय व्यतीत कर रही हूँ । स्कन्दश्री के इन दीनवचनों को सुनकर विजय के हृदय को बड़ी ठेस पहुँची । कारण कि उस के लिये यह सब कुछ एक साधारण सी बात थी, जिसके लिये स्कन्दश्री को इतना शारीरिक और मानसिक दुःख उठाना पड़ा । उसका एक जीवन साथी उसकी उपस्थिति में इतना दुःखी और वह भी एक साधारण सी बात के लिये, यह उसे सर्वथा असह्य था। उसे दुःख भी हुआ और आश्चर्य इस लिये कि उसने स्कन्दश्री की ओर पर्याप्त ध्यान देने में प्रमाद किया. और आश्चर्य इसलिये कि इतनी साधारण सी बात का उसने स्वयं प्रबन्ध न कर लिया । अस्तु, वह पूरा २ आश्वासन देता हश्रा अपनी प्रिय भार्या स्कन्दश्री से बोला कि प्रिये ! उठो, इस चिन्ता को छोड़ो, तुम्हें पूरी २ स्वतन्त्रता है तुम जिस तरह चाहो, वैसा ही करो । उस में जो कुछ भी कमी रहे, उसकी पूर्ति करना मेरा काम है । तुम अपनी इच्छा के अनुसार सम्बन्धिजनों को निमंत्रण दे सकती हो, यहां की चोरमहिलाओं को बुला सकती हो, और पुरुष के वेष में यथेच्छ विहार कर सकती हो । अधिक क्या कहूँ, तुम को अपने इस दोहद को यथेच्छ पूर्ति के लिये For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy