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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । २२५] तदनन्तर । सा-वह । खंदसिरी-स्कन्दश्री । भारिया-भार्या । विजएणं- विजय नामक । चोरसेणावतिणा-चोरसेनापति के द्वारा। अब्भणुराणाया समाणी-अभ्यनुज्ञात होने पर अर्थात् उसे आज्ञा मिल जाने पर । हट्ठ० - बहुत प्रसन्न हुई और । बहूहिं- अनेक । मित्त० - मित्रों की । जाव-यावत् । अन्नाहि य-और दूसरी । बहूहिं-बहुत सी । चोरमहिलाहिं-चोर-महिलाअ' के । सद्धिं-साथ । संपरिवुड़ा-संपरिवृत हुई - घिरी हुई । राहाया-स्नान कर के । जावयावत् । विभूसिता- सम्पूर्ण अलंकारों -आभूषणों से विभूषित हो कर । विपुलं - विपुल - पर्याप्त । असणं ४ = अशनादि खाद्य पद्वार्थों । सुरं च ५-और सुरा आदि पंचविध मद्यों का । प्रासादेमाणी ४ - आस्वादन, विस्वादन आदि करती हुई । विहरति-विहरण कर रही है। जिमियभुत्त त्तरागया-भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आकर । पुरिसणेवत्थिया-पुरुष के वेष से युक्त । सन्नद्धबद्ध० - दृढबन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच-लोहमय बखतर विशेष को शरीर पर धारण किये हुए । जाव--यावत् । आहिंडेमाणी-भ्रमण करती हुई। दोहलं दोहद को । विणेति-पूर्ण करती है । तते ण- तदनन्तर । सा खंदसिरी भारिया-वह स्कन्दश्री भार्या । संपराणदोहला-संपूर्णदोहदा अर्थात् जिस का दोहद पूर्ण हो गया है । संमाणियदोहलासम्मानितदोहदा अर्थात् इच्छित पदार्थ ला कर देने के कारण जिस के दोहद का सन्मान किया गया है । विणीयदोहला - विनीतदोहदा अर्थात् अभिलाषा के निवृत्ति होने से जिस के दोहद की निवृत्ति हो गई है । वोच्छिन्नदोहला-व्युच्छिन्नदोहदा अर्थात् दोहद -इच्छित वस्तु की प्रासक्ति न रहने से उस का दोहद व्युच्छिन्न (आसक्ति-रहित) हो गया है । सम्पन्नदोहला-सम्पन्नदोहदा अर्थात् अभिलषित अर्थ-धनादि और भोग–इन्द्रियों के विषय से सम्पादित अानन्द की प्राप्ति होने से जिस का दोहद सम्पन्न हो गया है । तं-उस । गभं-गर्भ को। सुहंसुहेणसुख - पूर्वक । परिवहति-धारण करने लगी । तते ण-तदनन्तर । सा-उस । खंदसिरीस्कन्दश्री । चोरसेणावतिणी-चोरसेनापति की स्त्री ने । नवराहं मासाण-नव मास के । बहुपडिपुराणाण - परिपूर्ण होने पर । दारगं-बालक को । पयाता-जन्म दिया ।। मूलार्थ-तदनन्तर विजयनामक चोरसेनापति ने आर्तध्यान करती हुई स्कन्दश्री को देख कर इस प्रकार कहा हे सुभगे ! तुम उदास हुई भार्तध्यान क्यों कर रही हो? स्कन्दश्री ने विजय के उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा कि स्वामिन् ! मुझे गर्भ धारण किये हुए तीन मास हो चुके हैं, अब मुझे यह (पूर्वोक्त) दोहद (गर्भिणी स्त्री का मनोरथ) उत्पन्न हुआ है, उसके पूर्ण न होने पर, कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित हुई यावत् मैं आर्तध्यान कर रही हूं। तब विजय चोरसेनापति अपनी स्कन्दश्री भार्या के पास से यह कथन सुन और उस पर विचार कर स्कन्दश्री भार्या के प्रति इस प्रकार कहने लगा कि -हे प्रिये ! तुम इस दोहद को यथारुचि पूर्ति कर सकती हो और इसके लिये कोई चिन्ता मत करो। पति के इस वचन को सुन कर स्कन्दश्री को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह हर्षातिरेक से अपनी सहचरियों तथा अन्य चारमहिलाओं को साथ ले स्नानादि से निवृत्त हो, सम्पर्ण अलंकारों से विभूषित हो कर, विपुल अशन पानादि तथा सुरा आदि का आस्वादन, विस्वाद - आदि करने लगी। इस प्रकार सव के साथ भोजन करने के अनन्तर उचित स्थान पर आकर For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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