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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७] श्री विपणक सूत्र अध्याय उपभोग करता रहे। परन्तु "सब दिन होत न एक समाम'' इस कहावत के अनुसार उज्झितक का वह सुख नष्ट होते कुछ भी देरी नहीं लगी। काम-वासना से वासित चित वाले मित्र नरेश ने कामध्वजा में आसक्त होते ही पांव के कांटे की तरह उसे - उज्झितक को वहां से निकलवा दिया और कामध्वजा पर अपना पूरा पूरा अधिकार कर लिया। उज्झितक कुमार गरीब निर्धन अथच असहाय था यह सत्य है और यह भी सत्य है कि मित्र नरेश के मुकाबिले में उसकी कुछ भी गणना नहीं थी । परन्तु वह भी एक मानव था और मित्र नरेश की भाति उस में भी मानवोचित हृदय विद्यमान था । प्रेम फिर वह शुद्ध हो या विक, यह हृदय की वस्तु है उस में धनाढ्य या निधन का कोई प्रश्न नहीं रहता । यही कारण था कि कामध्वजा वेश्या ने एक निर्धन अथवा अनाथ युवक को अपने प्रेम का अतिथि बनाया और राजशासन में नियंत्रित होने पर भी वह उज्झितक कुमार का परित्याग न कर सकी। कामध्वजा के निवास स्थान से बहिष्कृत किये जाने पर भी उज्झितक कुमार की कामध्वजागत मानसिक आसक्ति अथवा तद्गतप्रमातिरेक में कोई कमी नहीं आने पाई । वह निरन्तर उस की प्राप्ति में यत्नशील रहता है, अधिक क्या कहें उसके मन को अन्यत्र कहीं पर भी किसी प्रकार की शांति नहीं मिलता । वह हर समय एकान्त अवसर की खोज में रहता है। विषयासक्त मानव के हृदय में अपनी प्रेमी के लिये मोह-जन्य विषयवासना कितनी जागृत होती है। उसका अनुभव काम के पुजारी प्रत्येक मानव को प्रत्यक्षरूप से होता है । परन्तु इस विकृत प्रेम -विकृत राग के स्थान में यदि विशुद्ध प्रेम का साम्राज्य हो तो अन्धकार-पूर्ण मानव हृदय में कितना आलोक होता है ? इसका अनुभव तो विश्वप्रेमी साधु पुरुष ही करते हैं, साधारण व्यक्ति तो उससे वंचित ही रहते हैं । कामध्वजा वेश्या के ध्यान में लीन हा उज्झितक कमार उसके असह्य वियोग से पागल सा बन गया । उसकी मानसिक लग्न को व्यक्त करने के लिये सूत्रकार ने जिन शब्दों का निर्देश किया है, उनके अर्थ की भावना करते हुए वे उस की हृदयगत लग्न के प्रतिबिम्बस्वरूप ही प्रतीत होते हैं । वृत्तिकार के शब्दों में उनकी व्याख्या इस प्रकार है “मुच्छिए" मच्छितो-मूढो दोषेष्वपि गुणाध्यारोपात् ।” गिद्ध" तदाकांक्षावान् " गढिए" प्रथितस्तद्विषयस्नेहतन्तुसन्दभितः, “ अज्झोववन्ने ” आधिक्येन तदेकाग्रतां गताऽभ्युपन्न: अतएवान्यत्र कुत्रापि वस्त्वन्तरे " सुईच" स्मृति-स्मरणम् “रइंच" रतिम्-आसक्तिम्, “ घिई चधृतिं च चित्तस्वास्थ्यम् , “ अविंदमाणे" अलभमाना, “ तच्चित्ते" तस्यामेव चित्त भावमनः सामान्येन वा मनो यस्य स तथा- " तम्मणे" द्रव्यमनः प्रतीत्य विशेषोपयोगं वा। "तल्लेसे" कामध्वजागताऽशुभात्मपरिणामविशेषः लेश्या हि कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनित आत्मपरिणाम इति, “ तदझवसाणे" तस्यामेवाभ्यवसानं भोगक्रियाप्रयत्नविशेषरूपं यस्यस तथा। “ तदट्ठावउत्ते" तदर्थ-तत्प्राप्तये उपयुक्तः उपयागवान् यः स तथा, " तयप्पियकरणे" तस्यामेवार्पितानि-दौकितानि करणानोन्द्रियाणि येन स तथा, " तब्भावणाभाविए" तद्- (१) इस विषय में कविकुलशेखर कालीदास की निम्नलिखित उक्ति भी नितान्त उपयुक्त प्रतीत होती है कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं, दुःखमेकान्ततो वा । नोचैर्गच्छत्युपरी च दशा, चक्रनेमिक्रमेण ॥ [ मेघदूत ] For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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