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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दूसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ १७१ आगमों में इस बात का वर्णन बड़े मौलिक शब्दों में उपलब्ध किया जाता है कि पूर्व-संचित कर्मों के आधार पर ही सुख तथा दुःख का परिणाम होता है। यदि पूर्व कर्म शुभ हों तो जीवन में श्रानन्द रहता है और यदे अशम हों तो जीवन संकटों से व्याप्त हो जाता है । जिस तर्फ भी प्रवृत्ति होती है रोग उत्पन्न होने लग जाते हैं, फिर रोग भी जिन की चिकित्सा न 1 वहां हानि ही हानि के दर्शन होते हैं। भी ऐसे कि जिन का प्रतिकार अत्यत एवं वे भी हार मान जाऐं यह सब कुछ स्वोपार्जित अशुभ कमों की ही महिमा है । कर पायें शरीर में एक से अधिक कठिन हो । अनुभवी वैद्य Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir समय की गति बड़ी विचित्र है । श्राज जो जीव सुखमय जीवन बिता रहा है । कल वहीं असह्य दुःखों का अनुभव करने लगता है । महाराणी श्री भी समय के चक्र में फंसी हुई इसी नियम को उदाहरण बन रही थी । उसे योनिशूल ने आक्रमित कर लिया । योनिगत तीव्र वेदना से वह सदा व्यथित एवं व्याकुल रहने लगी । स्त्री की जननेन्द्रिय को योनि कहते हैं, तद्गत तीव्र वेदना का योनिशूल के नाम से उल्लेख किया जाता है । यह रोग कष्टसाध्य है, अगर इस का पूरी तरह से प्रतिकार न किया जाए तो स्त्री विषयभोगों के योग्य नहीं रहती। इसी लिये विजयमित्र नरेश श्री देवी के साथ सांसारिक विषय-वासना की पूर्ति में असफल रहते । दूसरे शब्दों में कहें तो श्री देवी विजयमित्र की कामवासना पूरी करने में अस मर्थ हो गई थी । उस मानव प्राणी पर मन का सब से अधिक नियन्त्रण है, उस की अनुकूलता जितनी हितकर है कहीं अधिक नष्ट करने वाली उस की प्रतिकूलता है। अनुकूल मन मानव प्राणी को ऊंचे से ऊंचे स्थान पर जा बिठाता है, और प्रतिकूल हुआ वह मानव को नीचे से नीचे गर्त में गिरा देने से भी कभी नहीं चूकता | सारांश यह है कि मन की निरंकुशता अनेक प्रकार के अनिष्टों का सम्पादन करने वाली है। महाराज विजयमित्र का निरंकुश मन श्री देवी के द्वारा नियंत्रित न होने के कारण अशान्त, अथच व्यथित रहता था । काम-वासना की पूर्ति न होने से मित्रनरेश का मन नितान्त विकृत दशा को प्राप्त हो रहा था परन्तु उस का कर्तव्य उसे परस्त्रीसेवन से रोक रहा था । प्रतिक्षण कामवासना तथा कर्तव्य-प -परायणता में युद्ध हो रहा था । कभी कर्तव्य पर वासना विजय पाती और कभी वासना पर कर्तव्य को विजय लाभ होता 1 इस पारस्परिक संघर्ष में अन्ततो गत्वा कर्तव्य पर कामवासना को विजय-लाभ हुआ, उस के तीव्र प्रभाव के आगे कर्तव्य को पराजित - परास्त होना पड़ा। विजय नरेश के हृदय पर कर्तव्य के बदले कामवासना ने ही सर्वेसर्वा अधिकार प्राप्त कर लिया, उस के चित्त से स्वस्त्री सन्तोष के विचार निकल गये, वहां परस्त्री या सामान्यास्त्री के उपभोग के अतिरिक्त और कोई लालसा नहीं रही और तदर्थ उस ने वहां पर रहने वाले कामध्वजा के कृपापात्र उज्झितक कुमार को निकलवाया और बाद अन्तःपुर में रख लिया । अत्र वह अपनी काम वासना को कामध्वजा वेश्या के प्रत्येक मानव प्राण की यह उत्कट इच्छा रहती है कि उस का तीत हो, इसके लिये वह यथाशक्ति श्रम भी करता है परन्तु कर्म का विकराल चक्र मानव के महान् योजना दुर्ग को आन की आन में भूमीसात् कर देता है । उज्झितक कुमार चाहता था कि कामध्वजा के सहवास में ही उस का जीवन व्यतीत हो और वह निरन्तर ही मानवीय विषय - भोगों का यथेष्ट में कामध्वजा को अपने द्वारा पूरी करने लगा । समस्त जीवन सुखमय व्य For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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