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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [१७३ भावनया कामध्वजाचिन्तया भावितो-वासितो यः स तथा, कामध्वजाया गणिकाया बहून्यन्तराणि च- राजगमनस्यान्तराणि "छिदाणि य” छिद्राणि राजपरिवारविरलत्वानि "विवराणि" शेषजनविरहान् , पडिजागरमाणे, गवेषयन् । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है - अचेतनावस्था का ही दूसरा नाम मूर्छा है, अथवा दोषों में गुणों का आरोपण ही मूर्छा है । मूर्छा से युक्त मूर्छित कहलाता है । गृद्ध शब्द से लम्पट अर्थ अभिप्रेत है। अथवा यू समझे कि जिसकी जिस में अभिकांक्षा है वह गृद्ध है । किसी भी विषय में स्नेहतन्तुओं से सम्बद्ध . व्यक्ति को ग्रथित कहा जाता है । किसी भी काम में अधिक एकग्रता-प्राप्त व्यक्ति अध्ययपन्न कहलाता है । ये सारे विशेषण उज्झितक कुमार की मनोदशा के परिचायक हैं। कामध्वजा में अत्यन्त आसक्त हने से उज्झितक कुमार को अन्यत्र कहीं पर भी मानसिक विश्रान्ति उपलब्ध नहीं होती । उसका भाव तथा द्रव्यमन उसी में संलग्न हो रहा है । तद्गतचित्त और तद्गतमन इन दोनों में चित्त शब्द भाव मन का और मन शब्द द्रव्य मन का बोधक है । आत्मा का परिणाम विशेष अर्थात कृष्णादि द्रव्यों के सानिध्य से उत्पन्न होने वाले बार । के शुभ या अशुभ परिणाम को लेश्या कहते हैं, और "तल्लेश्य' शब्दगत लेश्या शब्द का अर्थ प्रकृत में अशुभ आत्म -- परिणाम है ! तात्पर्य यह है कि कामध्वजा वेश्यागत अशुभ अात्म --परिणाम है । तात्पर्य कि कामध्वजा वेश्यागत अशुभ आत्म परिणाम सम्पन्न यह है होने से उज्जितकुमार से सम्पन्न होने से उज्झितक कुमार को तल्लेश्य कहा गया है। प्रस्तुत प्रकरण में अध्यवसान का अर्थ है-भोग (सांसारिक वासना की क्रियायें-प्रयत्न विशेष । उस प्रयत्न - विशेष वाले व्यक्ति को तदभ्यवसान कहते हैं। सारांश यह है कि उज्झितक कुमार की कामध्वजा वेश्यागत तल्लीनता इतनी बढ़ी हुई है कि मानों उसने कामध्वजा वेश्या की प्राप्ति में सफलता प्राप्त करलो हो, तथा उसके साथ वह वासना-पूति में लगा हुआ हो । और उस गणिका की प्राप्ति में वह सतत सावधान रहता है, यह तदर्थोपयुक्त शब्द का भाव है । एवं उसने उसी के लिये अपनी समस्त इन्द्रिय उपण करदी हैं, इसी कारण से उसे तदर्पितकरण कहा है । इसी लिये वह कामध्व जा के प्रत्येक अंगप्रत्यंग तथा रूप, लावण्य और प्रेम की भावना से भावित हुआ तन्मय हो रहा था । उज्झितक कुमार किसी ऐसे अवसर की खोज में था जिस में उसका कामध्वजा से मेलमिलाप हो जाय । एतदर्थ वह उस समय को देख रहा था कि जिस समय कामध्वजा के पास अन्तरराजा की उपस्थिति न हो, राजपरिवार का कोई प्रादमो न हो तथा कोई नागरिक भी न हो, तात्पर्य यह है कि जिस समय किसी अन्य व्यक्ति का वहां पर गमनागमन न हो ऐसे समय की वह प्रतीक्षा कर रहा था.. और उसके लिये वह यथाशक्ति प्रयत्न भी कर रहा था । अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में उज्झितक कुमार के उक्त प्रयत्न में सफल होने का उल्लेख करते हैं - मूल-'तए णं से उझिपए दारए अन्नया कयाइ कामझयाए गणियाए अंतरं लभेति । कामझयाए गणियाए गिह रहस्सियगं अणुप्पविसइ २ ता कामझयाए गणियाए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरति । (१) छाया-ततः स उज्झितको दारकः अन्यदा कदाचित् कामध्वजाया गणिकाया अन्तरं लभते। कामध्वजाया गणिकाया गृहं राहस्यि कम नुपविशति, अनुप्रविश्य कामध्वजया गणिकया सादमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुजानो विहरति । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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